ग़ज़ल हिंदी - जसवीर सिंह हलधर

आ गया हूँ मंच पर तो गीत गाकर ही रहूँगा ।
शब्द की कारीगरी को आज़मा कर ही रहूँगा ।
साथ मेरे रात दिन जो कार में भी भागते ,
शाइरी में शेर सारे काम लाकर ही रहूँगा ।
खेल कवियों के दमन का देखता हूँ जानता हूँ ,
बिन लिफाफे मुफ्त में कविता सुनाकर ही रहूँगा ।
कुछ दलालों ने किया है नाश इस साहित्य जग का ,
छंद लय से काव्य का रिश्ता बताकर ही रहूँगा ।
खेलता कैसे रहूँ मैं खेल ये निशि भर तिमिर का ,
दीप पिंगल ज्ञान का अब तो जलाकर ही रहूँगा ।
मुक्त होता है कभी क्या सांस का सुर ताल बंधन ,
मुक्त कविता के वकीलों को हराकर ही रहूँगा ।
सुप्त सरिता कह रहे जो रेत में डूबी नदी को ,
नाव उनकी रेत के नीचे दबाकर ही रहूँगा ।
मुक्त तो ग्रह भी नहीं है व्योम गंगा के निलय में ,
सत्य का ये आईना "हलधर " दिखाकर ही रहूँगा ।
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून