ग़ज़ल - विनोद निराश

 
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तन्हाई को गुनगुनाता रहा,
हाले-दिल पे मुस्कुराता रहा। 

वो तो नदी सी बहती रही, 
मगर मैं सदा प्यासा रहा।

कसक जगती रही दिल में,
मैं मन को सहलाता रहा। 

मासूम सा चेहरा तीरे-नज़र, 
दिल क्या-क्या सहता रहा। 

नज़र-अंदाज़ जिसने किया,
वही दिल को मेरे भाता रहा।

आलम-ए-इंतज़ार क्या कहे?  
दिल रोज़ फरेब खाता रहा। 

जिसे ढूंढ़ती रही निराश आँखे,
वो दिल में आता जाता रहा। 
- विनोद निराश, देहरादून  
 

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