ग़ज़ल - विनोद निराश

 
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तू ही दर्द मेरा  तू ही दवा है, 
तू ही हमदर्द  तू ही खफा है।  

जगाये  इश्क़ तेरा रातों को,
कह दूँ कैसे मैं, तू बेवफा है।  

दिल बेशक मेरा, है मगर,
धड़कता तेरे लिए हर दफा है।  

अब तो रातें कटे आँखों मे,
लगे इश्क़ तेरा, बा-वफ़ा है।  

छुपालो अपनी आखों मे मुझे,
इल्तजा ये आखिरी दफा है।  

कर के इश्क़ बहुत कुछ खोया,
पर इस घाटे मे छुपा नफा है।
  
जुबां खामोश, नज़र तरसती है,
जब से वो मुझसे हुआ खफा है। 

बे-अश्क हो गई ये निराश आँखें ,
क्या इश्क़ करने की यही सजा है।  
- विनोद निराश, देहरादून
 

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