ग़ज़ल - कशिश होशियारपुरी
आइनों की ज़बाँ तो हम भी हैं,
वक़्त के राज़दाँ तो हम भी हैं।
नूर-ओ-निकहत को देखने वालों,
मुड़ के देखो यहाँ तो हम भी हैं।
देखना है कि कब पहुँचते हैं,
तेरी जानिब रवाँ तो हम भी हैं।
अगली सदियों के लोग समझेंगे,
शायर-ए-ख़ुश बयाँ तो हम भी हैं।
तीरगी के उदास जंगल में,
अख़्तर-ए-ज़ौ-फ़िशाँ तो हम भी हैं।
तुम लुटाते हो बरकतें किस पर,
मौसमों, बे-अमाँ तो हम भी हैं
तुम भटकने के बा'द समझोगे,
मंज़िलों का निशाँ तो हम भी हैं।
फ़िक्र--ओ-अहसास के जवाज़ में हैं,
एक भटकी अज़ाँ तो हम भी हैं।
तुम अकेले नहीं हो दुनिया में,
ताईरो, बे- मकाँ तो हम भी हैं।
कोई पढ़ता नहीं मुहब्बत से,
इश्क़ की दास्ताँ तो हम भी हैं।
शाख़-ए-गुल पे कशिश तब्बसुम है,
इन दिनों शादमाँ तो हम भी हैं।
- कशिश होशियारपुरी, होशियार, पंजाब
नूर-ओ-निकहत =
निकहत = सुगंध
रवाँ = चलना, रवानी
तीरगी = अन्धेरा
अख़्तर-ए-ज़ौ-फ़िशाँ = चमकता हुआ सितारा
जवाज़ = वह प्रथा जो धर्म के अनुसार उचित हो
ताईर = पंछी
शादमाँ = ख़ुश