ग़ज़ल - राजू उपाध्याय

 
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रात  दिन गुमसुम हुये है, तुम  कुछ  बोलो  धीरे -धीरे,
एहसासों की नर्म गांठ को , तुम कुछ खोलो धीरे -धीरे।

तर-ब-तर होने को तरसते, ख्वाहिशों के तपते समन्दर,
ठहरे दरिया हिलोर मचायें, कुछ इनमे घोलो धीरे -धीरे।

हमने माना नही होता है, अब दुआओं से असर कोई,
सिर रख के किसी कांधे पर, तुम कुछ रोलो धीरे -धीरे।

आँखों  की  बस्ती में होती, कोरो से काजल की चोरी,
जज्बातों की इस रंगत में, तुम कुछ टटोलो धीरे -धीरे।

रोम  रोम जो कांप रहा है, शायद  रूह  जिस्म की रोई,
बदरंगी,दामन की अब, तुम अश्कों से धोलो धीरे -धीरे।

जागती  रातों  की भंवर में, क्यों नीदो को बैचेन किया,
पहले  पंख  दो  ख्वाबों  को, फिर तुम सोलो धीरे -धीरे।
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क्या  पता  फिर  लौट  न  जाये, वक्त का आया परिंदा,
जिक्रे-इश्क के नाम पर, तुम किसी के होलो धीरे -धीरे।
-  राजू उपाध्याय, एटा , उत्तर प्रदेश
 

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