ग़ज़ल - रीता गुलाटी

 
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आग क्रांति की बोता है पक्के अपने इरादों से,
डरते लोग बड़ा ही,मजदूरों के लगे हथोड़ो से।

अन्न उगाने वाला भूखा मरता,अपने दानो से,
मैने कविताएं लिखी हैं हसिये और कुदालो से।

हक अपना भी ले लेना, तुम अब पढ़ लिख कर,
काम बनता अब कहाँ है केवल देखे इन सपनो से।

सहता बोझा मँहगाई का, बीमारी मे वो रोता,
कुछ तो सोचो आखिर क्यो मरता मजदूर नसीबों से।

जब देखा भूखो मरते कैसे बचती *ऋतु सच से अब,
मैने लिखा वही देखा जो चूल्हे की चीत्कारो से। 
- रीता गुलाटी ऋतंभरा,चण्डीगढ़
 

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