ग़ज़ल - रीता गुलाटी
Sep 7, 2024, 23:44 IST
हकदार अब नही है नारी भी बेडियों की,
उसको नही जरूरत जीवन मे कायरों की।
खेले सभी थे,मिलजुल आंगन मे भाई बहना,
यादें सता रही हैं गुजरे हुऐ दिनो की।
क्यो चांद अब न निकला, नजरे छुपा रहा है,
वो राज जानता है माने है बादलों की।
फांको मे दिन भी गुजरा, जीते हैं मुफलिसी मे,
इक आस वो रखे है़ सिर पर मिले छतों की।
भोगे है़ं कष्ट नारी, संसार यातना भी,
सबला बनी है नारी क्या चाह चूड़ियों की।
- रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़