ग़ज़ल - विनोद निराश
Thu, 2 Mar 2023

आँख-ओ-ख्वाब में जंग जारी है,
रब जाने कैसी अजीब बीमारी है।
मौसमे-इश्क़ भी अजीब सा लगे,
सूनी आँखों में ख़्वाबों-खुमारी है।
मुद्दत से उनसे वाबस्ता हूँ मगर ,
कल रात भी रो-रो के गुजारी है।
क्यूँ हो गए है गाफिल हमसे,
ये सरासर दिल से रंजदारी है।
रात भर भीगी रही खुष्क आँखे,
बोले पलकों की ज़िम्मेदारी है।
कैसे मिलेगी अब ख्वाबे-ताबीर,
जब हुस्नो-इश्क़ में जोरदारी है।
निराश अब शिकवा कैसा जब,
आँख और अश्क में रंगदारी है।
- विनोद निराश , देहरादून
वाबस्ता - जुड़ा हुआ / संबद्ध / बँधा हुआ
गाफिल - बेफ़िक्र / बेख़बर./ बेपरवाह / लापरवाह
ख्वाबे-ताबीर - स्वप्न फल
रंगदारी - झगड़ा / गुंडागर्दी