ग़ज़ल - विनोद निराश

 
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आँख-ओ-ख्वाब में जंग जारी है,
रब जाने कैसी अजीब बीमारी है। 

मौसमे-इश्क़ भी अजीब सा लगे,  
सूनी आँखों में ख़्वाबों-खुमारी है। 

मुद्दत से उनसे वाबस्ता हूँ मगर , 
कल रात भी रो-रो के गुजारी है। 

क्यूँ हो गए है गाफिल हमसे, 
ये सरासर दिल से रंजदारी है। 

रात भर भीगी रही खुष्क आँखे, 
बोले पलकों की ज़िम्मेदारी है।  

कैसे मिलेगी अब ख्वाबे-ताबीर,  
जब हुस्नो-इश्क़ में जोरदारी है। 

निराश अब शिकवा कैसा जब,  
आँख और अश्क में रंगदारी है। 
- विनोद निराश , देहरादून
वाबस्ता - जुड़ा हुआ / संबद्ध / बँधा हुआ
गाफिल -  बेफ़िक्र / बेख़बर./ बेपरवाह / लापरवाह 
ख्वाबे-ताबीर - स्वप्न फल 
रंगदारी - झगड़ा / गुंडागर्दी
 

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