ग़ज़ल - विनोद निराश
Sep 1, 2023, 20:55 IST

याद जब आती है यादें, कुछ भी कहने नहीं देती,
मुसलसल साथ रहती है तन्हा रहने नहीं देती।
याद करते - करते हो जाती है आँखे अश्के-बार,
पलके संभालती आँसूं आँख से बहने नहीं देती।
जख्मे-दर्द-ए-दिल जब कभी हद से बढ़ जाता है,
यादें तुम्हारी दर्दे-दिल कुछ भी कहने नहीं देती।
पलक झपकी बह गए जागती आँखों से ख्वाब,
मगर यादें तेरी वो ख्वाबे-मंज़र ढ़हने नहीं देती।
तुमसे अलैहदा होंगे बेशक तन्हा हो गया निराश,
पर चाहत तेरी हाथ गैर का कभी गहने नहीं देती।
- विनोद निराश, देहरादून
मुसलसल - निरन्तर / लगातार
तन्हा - अकेला
अश्के-बार - सजल नेत्र / पानी से भरी आँखे
जख्मे-दर्द-ए-दिल - दिल के घाव की पीड़ा
दर्दे-दिल - हृदय पीड़ा
ख्वाबे-मंज़र - स्वप्न दृश्य
अलैहदा - अलग
गहने - पकड़ने / थामने