पनपती आशाएं - विनोद निराश

 
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ख्वाहिशों के चटक सुर्ख रंग लिए,
उम्मीद के कुछ पुहुप खिलते रहे,
मन में पनपती आशाएं आँखों में चमक बिखेरती रही। 

उगती रही चाहतें नाउम्मीदी की जमीं में,
बिखरती रही भीनी-भीनी खुश्बू,
तमनाएँ सिर्फ तुम्हारा ही ख्याल सहेजती रही। 

तुम्हारा अहसास कभी छू कर निकला,
तो कभी रूह से गुजर गया,
और मन इच्छा अदृश्य तृष्णा समेटती रही। 

तुम तो सदैव बंदिशों में बंधे रहे,
मैं हर बंदिश से उनमुक्त रहा,
इसलिए निराश मन को आस पल-पल घेरती रही। 
- विनोद निराश, देहरादून
 

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