आदिवासी कोयावंशी गोंडों की होली है शिमगा पर्व - राजेन्द्र सिंह गहलौत

 
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utkarshexpress.com - हिन्दू धर्म मे होलिका दहन एवं उसके दूसरे दिन रंगोत्सव हेतु जो धार्मिक मान्यताएं हैं, वे सर्वविदित हैं। लेकिन कोयावंशी गोंडों की होली जलाने एवं उसके दूसरे दिन पलाश (टेशू) के लाल रंग को एक-दूसरे पर डालने के पीछे एक अलग ही विचित्र धार्मिक मान्यता तथा एक अलग ही विचित्र धार्मिक कथा है । कोयावंशी गोंड होली को ''शिमगा’’ या ''शिवमगरा” के नाम से संबोधित करते हैं। शिमगा शब्द गोंडी भाषा के ''शिवमगरा” शब्द का अपभ्रंश है । ''शिवमगरा” शब्द शिव +ओम + गवरा इन तीन गोंडी शब्दों के मेल से बना है इन तीन शब्दों का अर्थ होता है शिव अर्थात शंभू , शंकर, महादेव, ओम अर्थात लेजा तथा गवरा अर्थात गौरी पार्वती । पूरे शब्द से यह आशय है कि ''शिव, गवरा (गौरी, पार्वती) को लेजा’। इन शब्दों के कथन के पीछे गोंडी धर्म की एक अलग ही विचित्र कथा है जो कि हिन्दू धर्म की पौराणिक कथा से बिल्कुल अलग है ।
कोयावंशी गोंडों की धार्मिक मान्यता है कि धरती के प्राचीन पंचद्वीपों के समूह ''गण्डो द्वीप’ पर आदिकाल से कोयावंशी गोंडों का राज्य था । वे कोयावंशी गोंड सम्राट, शंभू जिसे कि वे ''बड़ादेव’ के नाम से पुकारते हैं, के उपासक थे । बाहर से आये आर्यो ने कोयावंशी गोंड साम्राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन वे गोंडों को पराजित न कर सके। अपनी पराजय के कारणों का पता लगाने के लिये आर्यों ने साधु-संतों के रूप में जासूसों को गोंडों के गणराज्य में भेजा जहां उन्हें पता चला कि गोंडों के आदिदेव महादेव बड़ादेव जो योग एवं तंदरी विद्या में प्रवीण हैं, वे जब तक योग साधना में लीन रहेंगे, उनके उपासक कोयावंशी गोंडो का कोई बाल भी बांका न कर सकेगा। आर्यों को जब यह रहस्य ज्ञात हुआ तो उन्होंने शिव की साधना भंग करने के उद्देश्य से कई रूपवती आर्य कन्याओं को उनके पास भेजा, जिसमें कि दक्ष राजा की कन्या पार्वती भी थी, लेकिन दक्ष राजा की कन्या पार्वती स्वयं शिव शंकर पर मोहित हो गई और अंतत: पार्वती ने शिव शंकर का वरण किया परन्तु दक्ष राजा इससे शिव शंकर तथा अपनी कन्या पार्वती के प्रति अत्यन्त क्रोधित हो उठे और अपने राजमहल मे आयोजित ''महापूजन यज्ञ’ में उन्हें अपमानित करने के उद्देश्य से पार्वती को तो आमंत्रित किया लेकिन शिव को आमंत्रित नहीं किया। जब पार्वती अकेले ही महापूजन यज्ञ में पहुंची तो दक्ष राजा एवं अन्य आर्य राजाओं ने उनका तथा उनके पति शिव का अपमान किया। पार्वती द्वारा विरोध करने पर उन्हें यज्ञ कुण्ड में ढकेल दिया (हिन्दू धर्मग्रंथों में पार्वती के स्वयं यज्ञ कुण्ड में कूंद जाने  तथा शिव पार्वती दोनों को ही यज्ञ में आमंत्रित न करने का प्रसंग है।)। यह सब देख कर शिव के सेवक गण (कोयावंशी गोंड) ''शिवमगरा’  अर्थात हे शिव गवरा (गौरी) को ले जाओ (बचा कर ले जाओ) चिल्लाते हुये शिव शंभू को खबर देने दौड़ पड़े। शिव को जब इस दुखद घटना की  जानकारी मिली  तो उन्होंने क्रोधित हो कर अपना तीसरा नेत्र खोल कर दक्ष राजा के महल को जला डाला। शिव के सेवक गणों (कोयावंशी गोंड) ने ''शिव जोहार जो, बनोरियल फोयद फो, विनोरियल फोयद फो ‘ का नारा लगाते हुये यज्ञ कुण्ड में भस्म, गवरा दाई (गौरी माता) की राख को अपने मस्तक पर लगा कर आर्यों को नष्ट करने की  सौगन्ध ली। इसी धार्मिक घटना की स्मृति स्वरूप कोयावंशी गोंड समाज शिवमगरा पर्व (होली) मनाते हैं, तथा दूसरे दिन इस धार्मिक घटना में हुये रक्त पात की घटना का स्मरण कर एक-दूसरे पर पलाश का लाल रंग डालकर प्रतीक रुप में खून की होली खेलते हैं । हर वर्ष फागुन माह की पूर्णिमा को कोयावंशी गोंड समाज होली पर्व को ''शिमगा (शिवमगरा)’ के नाम से मनाते है । गोंड ग्रामो के युवा इस पर्व के पन्द्रह दिन पहले से प्रति दिन ''गवराना कटया सिम्ट उंटी लटिया । किस्कुंडा मानता, नीर मिटके किया ‘ ऐसा गोंडी भाषा का गीत गाते हुये हर घर से लकड़ी मांग कर ग्राम के बाहर पूर्व दिशा में लकडिय़ा इकठ्ठा करते  हैं तथा इस भांति एकत्रित लकडिय़ों के ढेर की, दांय से बांये पांच परिक्रमा, ''शिव जोहार जो, बनोरियल फोयद फो, विनोरियल फोयद फो’ के नारे लगाते हुये करके वापस घर लौट जाते हैं। फागुन की  पूर्णिमा के दिन  संध्या में  ग्राम का भूमिया  (पुजारी) , सभी ग्रामवासियों के साथ आरती लेकर, जहां लकडिय़ां एकत्रित  है, वहां पहुंचता है तथा गढ्ढा खोद कर उसमें कुछ पैसे तथा लोहे का चूरा डाल कर उसमें एक ऊंचा खम्भा गाड़ता है तथा हल्दी चावल से उसकी पूजा कर उसके चारों ओर, एकत्रित सभी लकडिय़ों को खड़ा कर देता है फिर चकमक की चिंगारी से उन्हें प्रज्ज्वलित कर देता है । उन जलती हुईं लकडिय़ों की आग में गुंथे हुये आटे की पार्वती की मूर्ति बना कर डाली जाती है। समस्त ग्रामवासी होली की पांच परिक्रमा ''शिवम गवरा’, ''शिवम गवरा’ के नारे लगाते हुये करते हैं । तभी कुछ स्थलों में एक व्यक्ति शंभू के भेष में त्रिशूल लिये हुये वहां आकर होली की दांये से बांये पांच परिक्रमा लगा कर जलती हुई होली में, क्रोधित मुद्रा में अपने त्रिशूल से वार करता है । बाद मे सभी लोग ''शिव जोहार जो, बनोरियल फोयद फो, विनोरियल फोयद फो’ के नारे लगाते हुये होली की  सात परिक्रमा करते हैं तथा देर रात तक शंभू पार्वती से सबंधित फगवा गीत गाते हैं।  दूसरे दिन प्रात: गाय के गोबर की गोबरिया को उस होली की आग में जला कर उसकी राख को अपने मस्तक पर लगा कर गोंड सभ्यता की धार्मिक घटना का स्मरण कर होली की पूजा करते हैं तथा प्रतीक रूप मे पलाश के लाल रंग को एक-दूसरे पर डाल कर खून की होली खेलते हैं जो कि शिव द्वारा दक्ष राजा के महल जलाने एवं आर्य राजाओं को मारने की स्मृति स्वरूप है।
खड़े रावण की प्रतिमा - 
शिमगा त्योहार के तीसरे दिन विभिन्न क्षेत्रों के कोयावंशी गोंड समाज के गण्डजीवों द्वारा गढ़ पूजन का आयोजन किया जाता है , जो  कि तीन-चार ग्रामों के सहयोग से की जाती है । इस पूजन मे रावण, मेघनाद एवं मन्दोदरी की पूजा की जाती है । वे रावण को गढ़ राजा, मन्दोदरी को गढ़माता तथा मेघनाद को गढ़वीर के संबोधन से संबोधित करते हैं। उनकी  मान्यता  है  कि अनार्य रावण एवं मेघनाद का आर्य राम एवं लक्ष्मण ने अधर्मपूर्वक वध किया था। लंका गढ़ के वीर रावणपुत्र मेघनाद जब काली कंकाली दाई की पूजा-आराधना कर रहे थे, तब राम और लक्ष्मण ने अधर्मपूर्वक उनके दोनों हाथ एवं सिर को  काट  दिया  था, तब भी मेघनाद के कटे हाथों ने अपना वध करने  वाले  आर्य राम  और लक्ष्मण का नाम अपने खून से लिख दिया था। मेघनाद (गढ़ वीर) की पूजा को कोयावंशी गोंड ''खडेरा पूजा” भी कहते है। तद हेतु वे गांव की पूरब दिशा मे एक खुले मैदान के बीचो-बीच  एक खम्भा गाड़कर उस खंभे के ऊपरी भाग में एक आड़ी लकड़ी छेद कर लगा देते हैं तथा उस आड़ी लकड़ी के दोनों छोरो पर लम्बी रस्सियों से लोहे के कुलावे लगा देते  हैं।  उसके बाद उस खम्भे को गेरू से पोत दिया जाता है। इसे ही वे गढ़ वीर कहते हैं, जबकि रावण (गढ़ राजा) तथा मन्दोदरी (गढ माता) की खड़ी प्रतिमाओं की भी कुछ स्थलों पर पूजा की जाती है । यह गढ़ पूजा मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओडि़श एवं गुजरात के अंचलों में निवास करने वाले कोयावंशी गोंडो द्वारा की जाती है, विशेष तौर पर रावणवंशी गोंडों द्वारा।
गढ़ पूजा हेतु होली के दूसरे दिन सुबह गोंड परिवार के लोग अपने घरो के आंगन में दस गोबरियों के हार बनाते हैं और उसे द्वार पर बांध कर उसकी पूजा करते  हैं।  दस गोबरियों की माला दस बलधारी लंका गढ़ के राजा रावण का प्रतीक मानी जाती हैं। जबकि रावण एवं मेघनाद की खडेरा पूजा (खड़े प्रतीक) हेतु होली के तीसरे दिन गढ़वीर (मेघनाद) एवं गढऱाजा (रावण) के प्रतीक रुप में, गांव के बाहर गाड़े गये खंभों की पूजा हेतु दोपहर सभी गोंड ग्रामवासी सामूहिक आरती लेकर जाते हंै भुमका (पुजारी) खडेरा की पूजा करता है , वह सन के कोंडा (गुंथी हुई रस्सी) द्वारा गढ़ खंभे को बांध देता है , उसके बाद सीढ़ी द्वारा ऊपर चढ़ कर आड़ी लकड़ी में लाल कपड़े से एक नारियल बांध देता है फिर आड़ी लकड़ी के दोनों छोर के कलावों में बंधी रस्सी को पकड़कर सात बार घुमाता है । उसके बाद नारियल वाले कपड़े को खोलकर नारियल को ऊपर से नीचे गिरा देता हैं, जिसे नीचे खड़े लोग लपक लेते हैं।  भुमका ऊपर से नीचे उतर आता है तथा सभी ग्रामवासी गढ़ खम्भे की पूजा करते हंै। खडेरा रूपी गढ़वीर (मेघनाद) के उपासक गढ़पूजन के दिन उपवास रखते हैं तथा परिवार के ''मानता” (मुख्य पूजन करने वाले या कोई मनौती मांगने वाले घर के सदस्य) को नये वस्त्र पहनाकर घर के दरवाजे पर चौक बनाकर उस पर पीढ़ा रखकर उसे  बैठाते हैं। ''मानता” के सामने कलश रखकर उसके दोनो हाथों में नारियल दे देते हैं। उसके बाद उसे यह मान कर ''गढ़वीर” के नाम से संबोधित करते हैं कि उस पर गढ़वीर का अंश (सवारी) आ गया है । ''मानता” को लेकर गढ़वीर पूजन स्थल खडेरा की और परिवार के सदस्य एवं ग्राम के लोग नाचते-गाते हुये चलते हैं तथा ''मानता” के आगे कलश लेकर घर की प्रमुख महिलायें चलती  हैं। खडेरा के पास पहुंच कर खड़े रावण के सामने कलश रख कर महिलायें पूजन करती हैं तथा दांये से बांये सात चक्कर लगा कर परिक्रमा करती हैं। उसके बाद  ''मानता” को गढ़ खम्भे पर चढ़ाकर आड़ी लकड़ी पर औंधा लिटाकर बांध देते हैं फिर आड़ी लकड़ी को रस्सी से पकड़ कर चार बार दांये से बांये घुमाते हैं।  ''मानता” जो आड़ी लकड़ी पर औंधा लेटा होता है, वह हाथ में पकड़े हुये नारियल को ऊपर से नीचे छोड़ देता है, जिसे नीचे खड़े लोग लपक लेते है। उसके बाद  ''मानता”को आड़ी लकड़ी से खोल कर नीचे उतारते हैं। ''मानता” नीचे उतर कर खडेरी की पूजा करता है तथा सामूहिक प्रसाद का वितरण किया जाता है। (विनायक फीचर्स)

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