कैसे करें देवताओं की पूजा - पं. लीलापत शर्मा

 
pic

utkarshexpress.com - भारतीय संस्कृति देव पूजा में विश्वास करती है। 'देव’ शब्द का स्थूल अर्थ है देने वाला, ज्ञानी, विद्वान आदि श्रेष्ठ व्यक्ति। देवता हमसे दूर नहीं हैं, वरन् पास ही हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों में जिन तैंतीस कोटि देवताओं का वर्णन किया गया है वे वास्तव में देव शक्तियां हैं। ये ही गुप्त रूप से संसार में नाना प्रकार के परिवर्तन, उपद्रव, उत्कर्ष करती रहती है।
हमारे यहां कहा गया है कि देवता 33 प्रकार के हैं, पितर आठ प्रकार के हैं। असुर 99 प्रकार के, गंधर्व 27 प्रकार के, पवन 89 प्रकार के बताए गए हैं। इन भिन्न-भिन्न शक्तियों को देखने से विदित होता है कि भारतवासियों को सूक्ष्म विज्ञान की कितनी अच्छी जानकारी थी और वे उनसे लाभ उठाकर प्रकृति के स्वामी बने हुए थे। कहा जाता है कि रावण के यहां देवता कैद रहते थे, उसने देवों को जीत लिया था।
भारतीय जनमानस के जो इतने अधिक देवता हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने मानवता के चरम विकास में असंख्य दैवी गुणों के विकास पर गंभीरता से विचार किया था। प्रत्येक देवता एक गुण का ही मूर्त रूप है। देव पूजा एक प्रकार से सद्गुणों, उत्तम सामथ्र्यों और उन्नति के गुप्त तत्वों की पूजा है। जीवन में धारण करने योग्य उत्तमोत्तम सद्गुणों को देवता का रूप देकर समाज का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया गया। गुणों को मूर्त स्वरूप प्रदान कर भिन्न-भिन्न देवताओं का निर्माण हुआ है। इस सरल प्रतीक पद्धति से जनता को अपने जीवन को ऊंचाई की ओर ले जाने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है।
आप चाहे जिस हिन्दू देवी देवता की पूजा आराधना करें, वह उसी जगत नियंता की एक शक्ति का रूप है। वह देवत्व का एक पहलू है जो आपके व्यक्तित्व में विकसित होकर आपको सामर्थ्यवान बना सकता है।
आरोग्यं भास्करादिच्छेद घनामिच्छदे धुतानाशनात्।
ज्ञान च शंकरादिच्छेत् मुक्ति मिच्छेत जनार्दनात्॥
अर्थात् आरोग्य की कामना सूर्य नारायण से करें, धन की इच्छा हुताशन (अग्निहोत्र) से पूरी करें। ज्ञान के लिए शंकर जी तथा मुक्ति के लिए जनार्दन की आराधना ग्रहण करें।
इस श्लोक का स्थूल अर्थ तो यही है कि अमुक अमुक अभिलाषा के लिए अमुक देवता की पूजा, आराधना, चिंतन इत्यादि करें। पूजा, अर्चना का साधारण अर्थ हम लोग गंध, अक्षत, धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य, तांबूल, अघ्र्य, स्त्रोत नमस्कार आदि ही समझते हैं और इतना कर्मकांड कर लेने मात्र से यह आशा करते हैं कि देवता लोग प्रसन्न होकर हमें मनोवांछित वस्तुएं प्रदान कर देंगे, परंतु हम देखते हैं कि अनेक मनुष्य इस प्रकार की ऊपरी पूजा अर्चनाओं में बहुत समय तक लगे रहते हैं, तो भी उनकी इच्छाएं पूर्ण नहीं होती हैं ऐसी दशा में उपर्युक्त शास्त्र वचन की सत्यता पर संदेह सा होने लगता है।
गंभीर दृष्टि से देखा जाए, तो इस वचन में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। असफलता का कारण हमारा एकांगी दृष्टिकोण है।
हम समझते हैं कि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए धार्मिक कर्मकांड की पूजापत्री ही पर्याप्त है, पर वास्तविक बात ऐसी नहीं है। देवी देवताओं का वास्तविक रूप समझना चाहिए। प्रत्येक देवी देवता का एक व्यावहारिक रूप है, जो हमारे दैनिक जीवन में कर्म पर निर्भर है। ये देवता हमसे यह मांग करते हैं कि हम उन्हें प्रसन्न करने के लिए इस जगत में ठोस कर्म करें, उनके द्वारा दिखाई हुई दिशा में परिश्रम करें, अपने उद्देश्य में तन्मय हो जाएं, संक्षेप में अपने मन वचन से उनमें अपने को नियोजित कर दें, तभी सच्ची पूजा संभव हो सकती है। कर्म से प्रसन्न होकर ही ये देवता मनोवांछित फल दिया करते हैं। ये कार्य शक्तियों के प्रतीक हैं। जब हम किसी मनोवांछित देवता को चुनें तो हमें उसके व्यावहारिक रूप को अवश्य समझ लेना चाहिए।
उदाहरण के लिए सूर्य देवता से हम आरोग्य, बल, स्वास्थ्य, दीर्घ जीवन की कामना करें। इसका व्यावहारिक अर्थ यह है कि हम सूर्य की किरणों, प्रकाश, वायु, खुले जीवन में घनिष्टता रखें। शरीर को प्रकृति के सहयोग में आने दें, प्राकृतिक जीवन जिएं।
 बदन को कपड़ों से ऐसा न लपेट लें कि त्वचा तक प्रकाश और वायु ही न पहुंच सके। सूर्य को नारायण विशेषण दिया गया है, जिसका गुप्त तात्पर्य यह है कि उसकी किरणों में जीवनदायी शक्तियां हैं।
ये रोग के कीटाणुओं को मारने की प्रचंड शक्ति रखती हैं, जितनी किसी बहुमूल्य दवाई में भी नहीं मिल सकती। जो व्यक्ति प्रकृति से निकट संपर्क रखते हैं और खुली धूप, वायु, प्रकाश आदि में कार्य करते हैं, वे दीर्घजीवी और निरोग रहते हैं। कहा भी है कि 'जहां धूप और हवा नहीं पहुंचती, वहां डॉक्टर पहुंचते हैं।‘ प्रकृति के फल, फूल, जीवों को देखिए। फल, वनस्पति, वृक्ष आदि का जो भाग धूप से सीधा संबंध रखता है, वहां प्राण शक्ति अधिक पाई जाती है। फलों के, शाक भाजियों के, अन्नों के छिलके सूर्य किरणों से सीधे संपर्क में आते हैं। इसीलिए भीतरी भाग की अपेक्षा उनके छिलकों में पोषक तत्व (विटामिन) अधिक पाए जाते हैं। सूर्य स्नान, सूर्य किरण चिकित्सा, सूर्य नमस्कार, सूर्य सेवन, सूर्य उपासना, सूर्य माहात्म्य आदि सभी का चिकित्सा पद्धतियों में बड़ा महत्व माना गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य के इन असंख्य लाभों को देखकर ही हिन्दू तत्व ज्ञानियों ने सूर्य को 'नारायण’ का दिव्य विशेषण प्रदान किया है। सूर्य शक्ति को जीवन में अधिक से अधिक व्यवहार करना यही सूर्य पूजा है, जिससे आरोग्य की वृद्धि होती है।
हुताशन, अग्निहोत्र का वास्तविक अर्थ है- 'साहसपूर्ण त्याग’। अग्निहोत्र में पहले हम अपनी मूल्यवान हवन सामग्री श्रद्धापूर्वक हवन करते हैं, तब उस यज्ञ का फल मिलता है। जो व्यक्ति कठिन श्रम, जिम्मेदारी, ईमानदारी तथा जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते हैं, वे ही धन कमा पाते हैं। भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले आलसी, साहसहीन व्यक्ति कोई ऊंचा काम नहीं कर सकते और न धन कमा सकते हैं।
किसान अपना अन्न खेत में बिखेर देता है, धैर्यपूर्वक छह महीने खेत को अपने पसीने से सींचता रहता है, एक बीज के बदले सौ बीज उसे मिलते हैं।
साहसी पुरुषों के गले में लक्ष्मी की जय माला पड़ती जाती है। धैर्यवान, अग्नि तप सा कठोर परिश्रम करने वाले, अपने कारोबार पर एकाग्र चित्त से श्रद्धा रखने वाले लोग सफलता प्राप्त करते हैं यही अग्निपूजा का वास्तविक व्यावहारिक स्वरूप है। जो व्यक्ति अग्नि देवता की पूजा का विधान समझता है उसे अग्नि जैसा कठोर तप करना चाहिए।
ज्ञान के लिए शंकर भगवान की आराधना का विधान है। शिव  संयमी, निस्पृह, त्यागी, योगस्थित (एकाग्र चित्त) उदारमना हैं। शंकर जी के इन गुणों को अपने चरित्र तथा दैनिक कार्यों में प्रकट करने वाले व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में ज्ञानवान बनते हैं उन्हें तत्व दर्शन प्राप्त होता है। असंयमी, ममताग्रस्त, लोभी, डांवाडोल चित्त वाले, अनुदार वृत्तियों वाले लोग शिक्षा की उत्तम व्यवस्था होने पर भी अधूरा और उल्टा ज्ञान प्राप्त करते हैं। वह ज्ञान नहीं एक प्रकार का अज्ञान है, जिससे उनमें असत्य, छल, अपहरण, शोषण, अहंकार, असंयम जैसे दुर्गुणों की वृद्धि होती है। जिनमें शंकर तत्व की स्थिति मौजूद है, वे कोई गुरू न होते हुए भी एकलव्य की तरह मिट्टी की मूर्ति को गुरू बना लेते हैं, कबीर की तरह गुरू के बिना जानकारी में ही दीक्षा ले लेते हैं। दत्तात्रेय की तरह मकड़ी, मक्खी, कौवे, कुत्ते जैसे निम्नकोटि के जीवों को गुरू बनाकर उनसे अपना ज्ञान भंडार भर लेते हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने अंदर शंकर तत्व की स्थापना आवश्यक है। इसका यह व्यवहारिक रूप है।
मुक्ति के लिए जनार्दन की पूजा की जाती है। जनता जनार्दन की पूजा को, लोक सेवा को, अनेक तत्वदर्शियों ने मुक्ति का साधन माना है। प्राणीमात्र में समाए हुए सजीव भगवान की पूजा करना कितने ही महर्षियों ने निर्जीव प्रतिमा पूजा की अपेक्षा कहीं ऊंचा माना है। इस प्रकार लोक सेवा, ईश्वर पूजा ही ठहरती है, उससे मुक्ति का द्वार खुल जाता है।
देव पूजा प्रत्यक्ष फलदायी साधना है। अपने चारों ओर प्रत्येक जीव, वृक्ष, पशु, मनुष्य सब में भगवान को ही व्याप्तदेखता है। संसार के सब प्राणियों और अपने आस-पास के मनुष्यों को जनार्दनमय समझता है। ऐसा व्यक्ति गुप्त या प्रकट रूप से किसी के प्रति कोई बुराई नहीं कर सकता। ऐसा सात्विक आचार और विचार वाला व्यक्ति अपने सतोगुण के कारण दूसरों को मुक्त करता है और स्वयं जीवनमुक्त हो जाता है।
हमारी देव पूजा में इसी प्रकार के गुप्त अभिप्राय कूट-कूट कर भरे हुए हैं।
ये हमारे अंदर छिपे हुए पौरूष एवं पराक्रम को जागृत करने के प्रतीक हैं।
ये गुणों की स्थूल प्रतिमाएं हैं। हम आज अज्ञानवश अपनी इन छिपी हुई शक्तियों को भूल गए हैं अन्यथा इनमें ज्ञान, अध्यात्म, धर्म, विवेक, रसायन का अतुलित ज्ञान भंडार भरा हुआ है। (विनायक फीचर्स)

Share this story