मैं तुम्हें खोज ने - मीनू कौशिक

 
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मैं  तुम्हें  खोजने  दिल  की  डोली लिए 
कल्पना  के  गगन  में   विचरता  रहा ।
जैसे  व्याकुल  हिरण मन में तृष्णा लिए 
प्यासा  मरुथल में  तन्हा  भटकता रहा ।
मैं तुम्हें खोजने ........ 
तुमको  देखा  नहीं  हम  मिले भी नहीं 
तुमसे परिचय नहीं  भाव-विनिमय नहीं 
पर    तेरी    वेदना    तेरी   संवेदना 
मेरी   छूती   रही    हर   घडी़  चेतना 
क्षितिज  के  छोर  से  तुम  बुलाती रहीं 
सुनके  बेबस  इधर  मैं  ठिठकता रहा ।
मैं तुम्हें खोजने...........
सहसा  आहट  तेरे  आगमन  की  हुई 
तेरी  पायल  की  एक  झंकृति-सी हुई 
चूड़ियों  की  खनक  से फिजाँ भर गई 
महक गजरे की  प्राणों को तर कर गई 
रूह   महका  गई  तेरी  भीनी  महक 
खुशबुओं  के  नशे  में  बहकता  रहा ।
मैं तुम्हें खोजने...... .......
मन की कूची ने एक  रूप को गढ़ लिया 
भावनाओं   ने  रंग  प्रेम   का  भर  दिया 
तुम  ग़ज़ल  बनके  मन में मचलने लगीं 
गीत  बनकर  लबों  पर  थिरकने  लगीं 
प्रेम   की   रागिनी   के  सुरों  में  यूँ  ही ,
मैं  मगन   डूबता   और   उबरता  रहा ।
मैं तुम्हें खोजने ......... 
-मीनू कौशिक (तेजस्विनी), दिल्ली 

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