मैं दिल्ली का लाल किला हूं - काजिम रिजवी
utkarshexpress.com दिल्ली- मैं दिल्ली का लाल किला हूं। मैंने अपनी आंखों से बड़े उतार-चढ़ाव देखे हैं। मेरे सामने इसी किले में कभी अंग्रेज, शहंशाह का इलाज करने आये थे। बदले में उन्हें 37 गांव और मुल्क में तिजारत करने का आदेश दिया गया था। मगर एक दिन वही शहंशाह उनके लिये मुजरिम हो गये और अंग्रेज हिन्दुस्तान के मालिक। मेरी आंखों के सामने इसी किले में मुगल बादशाह जहांदार शाह और शहजादे फरूखसियर को मौत के घाट उतार दिया गया। मेरी गोद में 57 दिनों तक क्रूर और खूनी नादिर शाह आकर बैठा रहा। उसने बड़ी बेरहमी से दिल्ली में कत्ले-आम मचाकर लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मुगल बेगमात को बेपरदा कर उनकी इज्जत व आबरू से खेला और उन्हें अपने पैरों तले रौंदा। बादशाह मुहम्मद शाह को अपमानित किया। संसार विख्यात हीरा कोहेनूर जो उनके ताज में जड़ा हुआ था और उनकी शान था, को छीना। दुनिया का सबसे महंगा तख्त जो तख्त-ए-ताउस के नाम से जाना जाता था को हासिल किया। 60 करोड़ रुपयों के कीमती हीरे जवाहरात के साथ किले की खूबसूरत बेगमात (जो दुनिया में अपनी खूबसूरती के लिये विख्यात थीं) को जबरदस्ती लूट कर चलता बना।
इतना ही नहीं मेरी आंखों के सामने रूहेला सरदार कादर खां ने शहंशाह आलम की आंखों में लोहे की गर्म सलाख घोंप कर उन्हें अंधा किया। मेरी आंखों के सामने अंग्रेज अन्दर आने के लिये गिड़गिड़ाया करते थे और यही अंग्रेज बाद में सीना तान कर आने लगे। मैंने अपनी आंखों से लाल किले पर मुगल परचम लहराते देखा। मेरी आंखों के सामने अंतिम मुगल सम्राट बहादर शाह जफर इसी किले में पैदा हुए, पले, बढ़े हुए और 1836 में सिंहासन पर बैठे। जब वह सिंहासन पर बैठे उस समय यहां अंग्रेज बड़े अदब से इजाजत लेकर आते थे और बादशाह का सम्मान करते। मगर अचानक उनके व्यवहार में बदलाव आया वह बादशाह को बेइज्जत करने पर उतारू हो गये। 'हिज एक्सेलेंसी की जगह पर डियर लिखने लगे। दरबार से बाहर आने पर जफर को 'डफर कहते।
मैंने अपनी आंखों से हाथी मौला बख्श के खौफ और डर से बड़े-बड़े अंग्रेज सूरमाओं को भागते देखा। जिसने शहंशाह की तरफ बुरी नजर डाली उसे मौला बख्श से चिरते देखा। मिर्जा इलाही बख्श को हाथी मौला बख्श से जान बचाकर भागते देखा।
मैंने अपनी आंखों से इसी लाल किले में प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम के समय झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, अवध के शासक नवाब वाजिद अली शाह, मौलवी अहमद उल्ला शाह, तात्याटोपे की गुप्त बैठकें होती भी देखी। यही बैठकर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ऐलान किया था कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। इसी बैठक में आलमपनाह बहादुर शाह ने अपने कांपते हुए हाथों से उन शाही फरमानों पर हस्ताक्षर किये थे जिनमें देशवासियों से कहा गया था कि तमाम लोगों और ज्योतिषियों के हिसाब से यह निश्चित हो चुका है कि अब अंग्रेजों के देश से जाने का समय आ गया है हमें अपने तमाम आपसी मतभेद को भुलाकर इस समय केवल एक ही उद्देश्य सामने रखना है कि जिस कीमत से और जिस जरिये से भी हो सके फिरंगियों को फौरन इस मुल्क से निकाल बाहर किया जाय। मुल्क आजाद होने पर अब इस मुल्क पर हुकूमत करने की मेरी जरा भी ख्वाहिश नहीं है। मैं चाहता हूं कि आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान के लोग किसी एक ऐसे व्यक्ति का चुनाव कर लें जो सबको साथ लेकर चल सके और वह आजादी जो हमें मिलने वाली है बड़ी कीमती नेमत होगी उसकी हिफाजत आप अपनी जान से भी ज्यादा करें।
इसी बैठक में यह भी निश्चित किया गया कि 31 मई 1857 को जब देश में भीषण गर्मी पड़े और अंग्रेजों का जीना हराम हो जाये इसी दिन एक साथ देश के कोने-कोने से अंग्रेजों पर धावा बोल दिया जाये। इसके लिये सारी तैयारियां भी की गई। कमल का फूल और चपाती को इस योजना का सूत्र बनाया गया। यदि यह योजना सफल हो गयी होती तो आज भारत का इतिहास ही कुछ और होता।
मैंने वीरांगना बेगम जीनत महल को क्रान्तिकारियों को संदेश देते भी देखा। कमांडर बख्त खां को उन्होंने ही क्रांति की रूप रेखा समझाई। मिर्जा मुगल जो अंग्रेजों के जानी दुश्मन थे को आग उगलते भी देखा। मैंने मौलाना मोहम्मद बाबर के देहली उर्दू अखबार के वह अंक भी देखे जिसमें मौलाना अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलते थे और अपनी आखिरी सांस तक आग उगलते ही रहे। उन्होंने अपनी लेखनी से अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी और जब वह अंग्रेजों के हाथ लगे तो मेरी आंखों के सामने उन्हें तोप से उड़ा दिया गया। मौलाना अंतिम समय तक शेर की तरह दहाड़ते रहे और अपना सीना ताने रहे मगर झुके नहीं।
मेरी आंखों के सामने ही आजादी से संबंधित अखबार पयामे-आजादी और सिराजुल अखबार भी निकले। यह अखबार क्या थे, आग का शोला थे और जो उन्हें पढ़ता उसका खून खौल उठता और वह अंग्रेजों को मुल्क से बाहर निकालने की ठान लेता।
मैंने 11 मई 1857 को दिल्ली को आजाद होते देखा। बहादुर योद्घा कमान्डर बख्त खां और उनके नायब मिर्जा मुगल को जहांपनाह बहादुर शाह जफर के कुशल नेतृत्व में अंग्रेजों से लड़ते देखा। इन बहादुरों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। अंग्रेज भागे और जो बचे उन्हें अपनी जान की खैर मांगते देखा।
दिल्ली मेरे सामने आजाद हुई। मेरे सामने ही क्रान्तिकारियों ने आलम पनाह सिराजउद्दीन मुहम्मद अबु जफर को देश का सम्राट घोषित किया। लाल किले पर मुगलों का झण्डा उतार कर क्रान्ति का प्रतीक हरा और सुनहरा झंडा जहांपनाह से फहरवाया गया। उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई। हाथी मौला बख्श ने भी सात बार सलाम किया। भारत मां के बहादुर सपूत रोहिला सरदार कमांडर बख्त खां सेनापति मिर्जा मुगल के स्थान पर हुकूमत के प्रधान सेनापति बनाये गये। जहांपनाह ने भरे दरबार में ऐलान किया कि आज अगर मेरी प्यारी बेगम जीनत महल इस क्रांतिकारी हुकूमत की आंखें हैं तो बहादुर कमांडर बख्त खां इसका दिमाग हैं। मुझे कमांडर बख्त खां जैसे सपूत पर बड़ा नाज है।
मैंने मिर्जा इलाही बख्श, हकीम एहसान उल्ला खां, मुंशी मुकुन्द लाल जैसे लोगों को कमांडर बख्त खां के सामने गिड़गिड़ाते देखा। बख्त खां इन संदिग्ध व्यक्तियों को मार डालना चाहते थे। वह जानते थे कि यह अंग्रेजों के मुखबिर हैं, कभी भी हुकूमत और कौम के लिये खतरा बन सकते हैं मगर माफी मांगने और घुटने टेक कर गिड़गिड़ाने के कारण जहांपनाह ने इनकी जानें बख्श दीं मगर बेजुबान हाथी मौला बख्श भी इन्हें माफ करने के पक्ष में नहीं था।
दिल्ली की आजादी के बाद मेरे ही आगोश में क्रान्तिकारी 'हम है हिन्दोस्तानी हिन्दुस्तान हमारा, पाक वतन है जन्नत से भी न्यारा’ गीत झूम-झूम कर गाते। मगर कुछ दिनों ही बाद अपने ही देश के गद्दारों के कारण दिल्ली को पुन: गुलाम होते देखा। केवल जामा मस्जिद के क्षेत्र ही में 70 हजार लोगों को मौत के घाट उतरते देखा। मेरी आंखों के सामने अंग्रेजों ने औरतों की इज्जत लूटी उन्हें सरे बाजार नंगा कर घुमाया गया। कुछ औरतों ने अपनी इज्जत बचाने के लिए कुओं में कूद कर अपनी जान दे दी। अंग्रेजों के जुल्मों के सामने अहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह के जुल्म भी फीके पड़ गये थे।
मैंने अपने किले के अन्दर अंग्रेजों को बड़े जुल्म ढाते देखा। चुन-चुन कर एक-एक क्रांतिकारी मारे गये। किले के अन्दर के खूबसूरत बाग, नहरें फव्वारे और महल खोद कर खंडहर बना दिये गये। गद्दारों को ऊंचे ओहदे दिये गये। बेगमात और उनकी नौजवान बेटियों के साथ अंग्रेजों ने ऐसा सलूक किया कि मानवता भी रो पड़ी। अंग्रेजों ने बहू बेटियों का मजाक उड़ाया जिनकी तरफ किसी की कभी निगाह उठाने की हिम्मत न थी उनकी आबरू लूटी। इस समय बेगमात की आंखों से जो दर्द भरे आंसू टपक रहे थे उसे देखकर मेरे दरो दीवार के पत्थर भी रो दिये।
मेरी आंखों के सामने आलम पनाह बहादुर शाह जफर अपने सर पर हजरत मुहम्मद साहब के पवित्र बाल की पेटी रखकर हाथी मौला पर सवार होकर हजरत निजामउद्दीन गये। जाते वक्त वह बड़ी बेबसी से मुझे देख रहे थे और आसमान की तरफ हाथ उठाकर बोले खुदा अब मैं मुगलों की इस आन को तेरे हवाले करता हूं और खुदा हाफिज कह कर चल दिये। मैं सब कुछ देखता रहा मगर कुछ न कर सकता था। मेरी आंखों के सामने मेरे ऊपर से क्रांतिकारी झंडा उतार कर कम्पनी सरकार का झंडा फहरा दिया गया।
मेरी आंखों के सामने आलम पनाह बहादुर शाह जफर, बंदी बनाकर यहीं लाये गये। उन पर बड़े जुल्म ढाये गये। उनके बेटे मिर्जा मुगल और दो पोतों के कटे सर उनके सामने पेश किये गये। मेरे ही आगोश में उन पर झूठा मुकदमा चलाकर उन्हें बंदी के रूप में उस जगह खड़ा किया गया जहां कभी वह दरबार लगाकर इंसाफ किया करते थे। मैंने जहांपनाह के विरूद्घ गद्दार मिर्जा इलाही बख्श, मुंशी मुकुन्द लाल और हकीम एहसान उल्ला खां को झूठी गवाही देते देखा। जहांपनाह के उस समय के एक-एक शब्द आज भी मेरे अन्दर गूंज रहे हैं 'अगर गुलामी से आजाद कराना जुर्म है तो मैं इस वक्त हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा मुजरिम हूं और इसके लिये यह नाटकीय अदालत जो भी बड़ी से बड़ी सजा मुझे देना चाहे दे सकती है। मैं मरते दम तक यह कहता रहूंगा कि आजादी सबसे बड़ी नेमत है इसे हासिल करना हर हिन्दुस्तानी का पहला और अव्वल फर्ज है। मैंने देखा आलम पनाह बहादुर शाह जफर की आंखों में काफी चमक थी। उनका चेहरा खिला हुआ था और ऐसा लग रहा था जैसे इस बयान के बाद वह अपने को आजाद महसूस कर रहे थे।
उन्होंने यह भी कहा-फैसला कैसा फैसला? मेरी तकदीर का फैसला तो संसार की सबसे बड़ी अदालत में हो चुका है। वहीं दूसरी ओर अदालत में इस बयान के बाद अपनी जीती बाजी को हार मार रहे अंग्रेजों के चेहरों पर हवाईयां उड़ रही थीं। अदालत में हर तरफ शोर मचा हुआ था। अदालत को जफर के ऐसे बयान की कतई उम्मीद न थी। वह सोचती थी कि इतने जुल्मों के बाद टूट जायेंगे मगर उसका उल्टा हुआ। अंत में अदालत ने जफर को सारी जिन्दगी रंगून की कैद में नजर बन्द रखने का फैसला सुनाते हुये अदालत बर्खास्त कर दी। आलम पनाह के जाने के बाद मे अंग्रेजों की छावनी बन गया। यह उजड़ा दयार जिसे कभी अमीर खुसरो ने जन्नत की संज्ञा दी थी अंग्रेजों के शराब कबाब का अड्ïडा बन गया। काफी लम्बे समय तक यहां वीराना रहा।
भारत के एक महान सपूत नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने जब भारत मां को स्वतंत्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज की स्थापना की तो इस संगठन ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।
अंग्रेजों ने आजाद हिन्द फौज के संचालकों पर मुकदमा चलाया तो वह भी मेरे ही दीवाने खास में जहां कभी 1857 में बहादुर शाह जफर पर मुकदमा चलाया गया था।
इसमें बचाव पक्ष के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरू और बैरिस्टर आसिफ अली उपस्थित हुए थे। मुझे सबसे अधिक खुशी उस दिन हुई थी जब नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने रंगून में बहादुर शाह जफर की मजार पर यह कसम खाई थी कि मैं तेरे सामने यह शपथ लेता हूं कि मैं तेरी बेइज्जती का बदला अंग्रेजों से जरूर लूंगा और लाल किले पर लगे यूनियन जैक को उखाड़ दूंगा।
अफसोस नेता जी ऐसा न कर सके मगर वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात भारतवासियों ने भारत से अंग्रेजों को भगा दिया। अब मैं पूरी तरह आजाद हूं 15 अगस्त 1947 को आखिर यूनियन जैक मेरे ऊपर से उतार दिया गया और देश के महान सपूत पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मुझ पर तिरंगा फहरा कर भारत को आजाद घोषित किया। अब वतन आजाद है और सदा मेरे ऊपर तिरंगा लहराता रहे यही मेरी कामना है। (विनायक फीचर्स)