मैं समझ सकती हूँ - सुनीता मिश्रा

 
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utkarshexpress.com - आज कल 'कभी घर आना' कहने में लोग वक़्त नहीं लगाते। पर कई बार बातों-बातों में कह दी गयी ये बात आई-गयी सी हो जाती है. और फिर 'long time yaar, we must catch up' जैसी बातों से instagram या whatsapp पे ही दिल बहलाते हैं.  कभी-कभी तो तारीख और दिन भी तय हो जाता है. पर उस दिन किस कारणवश आपको दिए गए बुलावे को भुलावा करार दे दिया गया है, ये सच कभी सामने नहीं आता है, तो जनाब, बुरा मत मानिये. हम सब self-proclaimed बिज़ी लोग हैं जो अपनापन ढूँढ़ते फिरते हैं... पर जब निभाने की बात आती है तो उससे जुडी फॉर्मेलिटी से थोड़ा घबरा जाते हैं।  
आसान नहीं किसी को घर बुलाकर निश्चिन्त हो जाना. एंटरटेनमेंट का सारा भार सर पर खड़ा रहता है, क्या पका कर या मंगवा कर खिलाना है, ये सवाल अड़ा रहता है. कुछ लोग आकर धम्म से सोफे पर सेट हो जाते हैं, और आव-भगत की सारी ज़िम्मेदारी तुम पर डाल मुस्काते हैं. तो कुछ लोग नखरों का अम्बार लगा आपको अपने ही घर में असहज बनाने में कामयाब हो जाते हैं. 
तो हम ये बीच-मझदार वाले पौराणिक युवा पीढ़ी के लोग इस सब से घबराकर अपने घर में आने के लिए दिए हुए निमंत्रण को 'छोड़ो भाई, कौन इस पचड़े में पड़े' कहकर खुद ही नकार के, निश्चिन्त हो जाते हैं. दिल के अच्छे लोग हैं, पर एक पल के extrovertedness को भीतर दुबके बैठे introvertedness से हारा हुआ पाते हैं.
तो अब उस बात पर आते हैं, जहाँ से बहानों में लिपटी ये लम्बी-चौड़ी बात की शुरुवात हुई थी. 
कहना ये है कि अगर मैं आपको कभी घर बुलाऊँ, तो बेझिझक चले आना. पर मेहमानों की तरह नहीं. वो तमग़ा बाहर उतारकर आना. प्यार, मोहब्बत से वक़्त बिताएंगे, खुलकर कई बातों पर चर्चा करेंगे, ठहाके लगाएंगे, थोड़ा सुसताएंगे... और मिल-जुलकर शाम को सजायेंगे. तुम चाय चढ़ा देना, मैं परांठे बना दूंगी। 
तुम प्लेट लगा देना, मैं प्यार से परोस दूंगी, तुम पानी का जग भरकर ले आना, मैं बातों का भण्डार तैयार रखूंगी... सब आपस में बांटकर खाएंगे, थोड़ा बेसुरा ही सही गुनगुनायेंगे... और मेहमान नवाज़ी के मूल अर्थ को main course की तरह नहीं, बल्कि बतौर side dish चटनी की तरह स्वाद लेकर खाएंगे. 
मंज़ूर है तो चले आओ घर. मुझे अच्छा लगेगा.  - सुनीता मिश्रा,  जमशेदपुर  

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