पुश्तैनी अधिकार मुझे हैं मदिरालय के आँगन पर : बच्चन - डॉ. कुमार विमल

 
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utkarshexpress.com - शायद, कम लोगों को इसकी जानकारी होगी कि अपने संघर्षमय जीवन में अग्निपथ पर चलने वाले बच्चन जी रोज रामचरितमानस का पाठ करते थे और वे जहां-जहां रहते थे, वहां अपने आवास के प्रांगण में हनुमान जी का एक मंदिर अवश्य बना लेते थे। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय के हिन्दी पत्राचार-प्रकोष्ठ में नियुक्ति के बाद जब वे नई दिल्ली के 13, बिलिंगडन क्रिसेन्ट में रहने लगे, तब उन्होंने अपने हाथों से ढोये हुए पत्थर  के टुकड़ों से एक हनुमान मंदिर स्वयं बना लिया था और उसमें हनुमान जी की एक मूर्ति प्रतिष्ठापित कर दी थी। वे नित्य प्रति उस छोटे से मंदिर में घडिय़ाल (घड़ीघंट)  और शंख बजाकर हनुमान जी की पूजा करते थे। बच्चन जी ने इस हनुमान मंदिर में कई बार मुझसे भी शंख फुंकवाया था और घड़ीघंट बजवाया था। 'आनंद-गंधी भाषा'   के कवि बच्चन के बारे में पन्त जी ने लिखा है कि ''उनके  पिता जिस घर में रामायण नहीं होती, वहां पानी भी पानी पसंद नहीं करते थे।यों बिलिंडन क्रिसेन्ट वाले बंगले में, बातचीत के क्रम में, बच्चन जी प्राय: कहा करते थे कि मैं तो 'पैगन'  हूं।
'सिसिफस बरक्स हनुमान शीर्षक अपनी कविता में बच्चन जी ने जिस रूप मेें  'एब्सर्ड हीरो'सिसिफस के बरक्स हनुमान जी को भारतीय संस्कृति की सतत जायमान संजीवनी शक्ति के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है, उसकी प्रेरक  पृष्ठभूमि में उनकी अगाध हनुमद्भक्ति का प्रचुर योगदान है। कवि के अनुसार मृत्युंजय हनुमान जी के पास भक्ति, शक्ति, शांति और संजीवनी है। हनुमान जी के सामने सिसिफस की क्या बिसात? सिसिफस के हाथ में चट्टान थी, किंतु, रामकथा के लीलासंगी अंजनि-नन्दन रामदास हनुमान जी के हाथ में पहाड़ था, जिसे वे जड़ से उखाड़ कर उत्तर से दक्षिण ले आए-'मानो प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि यों धुकि धोयो' ।
उनके कविता संग्रह 'बहुत दिन बीते' के नामकरण पर भी अवधी और तुलसीदास का परोक्ष नहीं, प्रत्यक्ष प्रभाव है। इसके प्राक्कथन में बच्चन जी ने तुलसीदास का ऋण स्वीकार करते हुए यह पंक्ति उद्धृत की है-'तुम बिन जिअत बहुत दिन बीते'। अवधी की इस पंक्ति के उत्तराद्र्घ को हनुमान और तुलसीदास के भक्त बच्चन ने खड़ी बोली का नामकरण बना दिया है!  आज भी 'मधुशाला'   की हजारों प्रतियां प्रतिवर्ष बिकती हैं। 'मधुशाला'के प्रथम अंग्रेजी रूपान्तर की भूमिका पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी। बच्चन जी के अलावा केवल दो हिन्दी कवियों की ओर नेहरू जी की दृष्टि गई थी। अज्ञेय की अंग्रेजी कविताओं के संकलन और दिनकर की पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय'  की भूमिका नेहरू जी ने लिखी थी।
'मधुशाला' की कई विशेषताएं सचमुच, लक्षित करने योग्य हैं। शीर्ष विशेषता तो यही है कि जिस पंचाब्द में  (सन 1932-37 ईसवी की अवधि में)  'कामायनी' , 'गोदान' और 'राम की शक्ति-पूजा'  जैसी शिखर कृतियों की रचना हुई, उसी पंचाब्द में 'मधुशाला' की भी रचना 1933 ईसवी में हुई। एक और गीतिप्रधान दार्शनिक महाकाव्य 'कामायनी' की रचना, दूसरी और अपने समय और समाज के यथार्थोन्मुख इतिवृत्त का औपन्यासिक चित्रण 'गोदान', तीसरी ओर तत्सम-प्रचुर समस्त शैली में रचित शक्ति की आराधना की गुरू गम्भीर कविता 'राम की शक्ति-पूजा'  और चौथी ओर पन्त के नेतृत्व में मसृण पदशय्या-युक्त छायावादी काव्य शैली की रचनाएं। इस परिदृश्य में 'तेरा हार'  से अपनी कविता-यात्रा प्रारंभ करने वाले बच्चन ने 'मधुशाला' के माध्यम से एक सहज, सरल और कभी-कभी गद्य की समीपी काव्य-भाषा को खड़ी बोली मेें जन्म दिया। यह काव्य-भाषा गेय और मर्म-स्पर्शिनी थी, किंतु, छायावादी काव्य-भाषा की छुईमुई-सी सुकुमारता से ग्रस्त नहीं थी। इस तरह 'जन-मन-मादन' (सुमित्रानन्दन पंत के शब्दों में) कवि बच्चन ने 'मधुशाला'के माध्यम से उस दौर की काव्य-भाषा से भिन्न खड़ी बोली की काव्य -भाषा को प्रतिमानित किया, जिसमें गरिष्ठ संस्कृत-शैली की 'गद्गद्नद' वाली गलस्तन शब्द-योजना नहीं थी। 'मधुशाला'  की दूसरी विशेषता यह थी कि कवि ने बहुत ही चातुरी के साथ अपनी 'कल्पित अनुभूति' (आइडियेटेड एक्सपिरियेन्स) मेें अपने पाठकों और श्रोताओं को रमा दिया था। 'कल्पित अनुभूति'  इसलिए कि बच्चन जी ने कभी शराब का स्वाद तक नहीं चखा था, किसी मधुशाला  या मयखाने में जाने की बात तो दूर रही। बच्चन जी ने शराब के साथ अपने रिश्ते को बताते हुए कहीं लिखा है कि अमोढ़ा के कायस्थ कभी शराब नहीं पीते। उनके यहां यह किंवदन्ती है कि यदि कोई शराब पियेगा, तो कोढ़ी हो जाएगा। किंतु, बच्चन जी ने पाठकों को भ्रमित रखने के लिए उत्तर भारत की लोक-धारणा और चन्दरवाई के एक छप्पय की एक पंक्ति ('कायथ होय प्रधान अहोनिसि रहे पियंतौ )  का सहारा लेते हुए एक ऐसी रूबाई लिख दी-
मैं कायस्थ कुलोद्भव, मेरे
पुरखों ने इतना ढाला
मेरे तन के लोहू में है
पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे हैं
मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों-परदादों के
हाथ बिकी थी मधुशाला।
यह तो  भारत की एक प्रतिष्ठित और बुद्घिजीवी जाति, कलमजीवी स्वजाति के प्रति कवि की चुटकी, हास-परिहास और विनोद की बात रही। किंतु वास्तविकता यह है कि अपनी विदेश-यात्राओं और इंग्लैंड-प्रवास के बावजूद बच्चन शराब के स्वाद से अपरिचित थे। इसलिए 'मधुशाला', अपनी अभिधा में 'कल्पित अनुभूतियो'के कारण एक अच्युत ब्रह्मचारी द्वारा लिखित कामशास्त्र जैसी कृति है। किंतु, अपनी लक्षणा और व्यंजना में, बच्चन की 'मधुशाला'  के अर्थोन्मीलन के कई स्तर हैं। इस लक्षणाश्रित तथा व्यंजनाश्रित अर्थोन्मीलन के कारण 'मधुशाला' एक लोकप्रिय रचना बन गई है तथा वह हालावाद की भाव-भंगिमा-पूर्ण अमूर्त रहस्यात्मकता को व्यंजित करने के साथ ही युगातीत और युगीन समय-सन्दर्भो को भी प्रतिबिम्बित करती है। 'बैर कराते मस्जिद-मंदिर, मेल कराती मधुशाला' जैसी पंक्तियां इसी मानी में पंथ-निरपेक्षता की ओर हमें प्रेरित करती हैं।
ओज और श्रृंगार मनुष्य की दो प्रमुख मनोवृत्तियां हैं। बच्चन और दिनकर की लोकप्रियता ने इस गुर का पूरा लाभ उठाया है। बच्चन ने अपने युग के नौजवान श्रोताओं और पाठकों की श्रृंगार-वृत्ति, उसके मादन उद्वेलन तथा आनन्दोद्रेक का लाभ उठाया और दिनकर ने, जो अंग्रेजी राज में अपनी छात्रावस्था में 'अमिताभ'  के उपनाम (छद्म नाम) से राष्ट्रीय कविताएं लिखा करते थे, अपने युग के नौजवान श्रोताओं और पाठकों की ओज-वृत्ति का लाभ उठाया। यह भी सच है कि हाला, मधुशाला और रूबाइयों के संदर्भ में बच्चन पर उमर खैयाम का गहरा प्रभाव था, जो खैयाम की 'मधुशाला' , 'उमर खैयाम की रूबाइयां,इत्यादि जैसी कृतियों से स्पष्ट है। अपने कैम्ब्रिज-प्रवास के दिनों मेें भी बच्चन जी प्रोफेसर आरबेरी-कृत उमर खैयाम के उस अनुवाद का हिन्दी रूपान्तरण करना चाहते थे, जो अनुवाद उमर खैयाम की दुर्लभ मूल पाण्डुलिपि से किया गया था किंतु, बच्चन जी की यह इच्छा, शायद, शोध-सम्बन्धी व्यस्तताओं के कारण पूरी नहीं हो सकी।
बच्चन जी ने उमर खैयाम की रूबाइयों को उनकी गहराइयों में समझने की चेष्ठा की थी और इन गहराइयों में उन्हें वेदान्त और उपनिषदों के दर्शन की झलक भी मिली थी। खुरासान के ईराल शहर में ग्यारहवीं शताब्दी में जन्मे उमर खैयाम एक दीर्घायु कवि थे और वे मूलत: गणितज्ञ और ज्योतिषी थे। उन्हें केवल मदपी, सरगश्त, रिंद या नाफर्मान समझना भारी भूल है।
फिट्जेराल्ड ने भी उन्हें फारस का ज्योतिषी कवि- यानी कवि से भी पहले ज्योतिषी-माना था। बच्चन जी सम्भवत: जान पेन के इस मन्तव्य से सहमत थे कि उमर खैयाम औपनिषदिक सिद्घांतों के पालक ही नहीं, प्रचारक भी रहे होंगे। अत: खैयाम की अनेक रूबाइयों की व्याख्या वेदान्त दर्शन के आलोक में भी की जा सकती है। इस वैचारिक पृष्ठभूमि में बच्चन की 'मधुशाला'  के अर्थोन्मीलन को एक गम्भीर धरातल पर समझने की चेष्टा की जानी चाहिए।
मूल रूप में सन् 1933 में रचित 'मधुशाला'में कुल 75 रूबाईयां  (चतुष्पदियां) थीं, सन 1934 में रूबाइयों की संख्या 108 हो गई और सन 1936 के बाद के संस्करणों में 'मधुशाला' की रूबाइयों की संख्या बढ़ते-बढ़ते 135 हो गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि चैतन्य-मन्थन से युक्त 'मधुशाला'में एक और सिन्धु की तृष्णा है और दूसरी और बिन्दु से ही संतोष पा लेने का संयाम है-
सिंधु-तृषा दी किसने रचकर
बिन्दु बराबर मधुशाला!
यही है 'मधुशाला'का बच्चन के 'हालावाद' का अध्यात्म। यों बच्चन का 'हालावाद' छायावादी कवियों के 'हृदयवाद'  से बहुत भिन्न नहीं है।
देखिये, बच्चन के 'हालावाद'  में 'हृदयवाद'  की बहार-'कवि का हृदय केवल कवि का हृदय नहीं है। उसकी हृदय-गोद में त्रिकाल और त्रिभुवन सोते रहते हैं।  उसका हृदयांगण गगन के गान...से प्रतिध्वनित हुआ करता है। उसके हृदय-मंदिर मेें जन्म-जीवन-मरण...नृत्य किया करते हैं। इस कारण कवि के हृदय के गलने के साथ ही आज समस्त विश्व मादक हाला से परिप्लावित हो उठा है।' केवल हृदय, और हृदय!  (विभूति फीचर्स)

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