चितवन पर फिर से कच्ची धूप मलूँ मैं - अनुराधा पाण्डेय

 
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स्वप्न वे जो चिर कुँवारे, प्रेम में पावन बुने थे ।
याद क्या अब तक तुझे वे, धड़कने निर्दोष मन की?

थरथराती उँगलियों से प्रेम का वो पत्र पहला,
याद आता क्या नहीं वो, हाय ! क्षण कितना सुनहला ।
कँपकपाते से अधर से, अनकहे अस्फुट से स्वर वे।
याद क्या आते नहीं अब, सृष्टि के सर्वोच्य वर वे?
क्या नहीं सुधियाँ सु-सञ्चित, प्रीत के अम्लान धन की?
याद क्या अब तक तुझे वे, धड़कनें निर्दोष मन की?

याद क्या तुझको गली वो ,और पथ मेरे सदन का?
चिर प्रतीक्षा याद वे क्या , आज भी मेरे अयन का?
दूर से ही देखना औ, नित्य घर तक साथ आना।
याद क्या अब भी तुझे है,पंथ में खुद को बिछाना?
गंध मादन सी बसी क्या, आज भी उर बद्ध वन की?
याद क्या अब तक तुझे वे, धड़कनें निर्दोष मन की?

है न मुझको ज्ञात अब ये, जा बसा तू किस विजन में?
हो गया है तू सितारा , औ चमकता किस गगन में?
आज भी आकाश गङ्गा, किन्तु मैं देखूँ निशा में। 
क्या पता कुछ चिन्ह तेरा, भी दिखे कोई दिशा में?
धन्य होगी तारिका वो , सच कहूँ तेरे गगन की।
याद क्या अब तक तुझे वे, धड़कनें निर्दोष मन की?
- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, दिल्ली
 

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