जोग लगै दुख होय - अनुराधा पाण्डेय 

 
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मैं तुम्हारे नेह में आबद्ध होकर
वक्ष पर धर सीस मरना चाहती हूँ....

व्यग्र मेरे प्राण व्याकुल है प्रिये! सुन
ले वलय में बाह के अभिसार कर ले ।
प्रीत के आगे अथक असहाय हूँ मैं
साँस के इस तल्प पर अधिकार कर ले ।
नेह का सागर अगम उद्दात उच्छल
तैर कर सर में उतरना  चाहती हूँ....
मैं तुम्हारे नेह में आबद्ध होकर,
वक्ष पर धर शीश...

चुंबनों के चिन्ह उर हिलकोरते हैं,
पर अधर उल्लास मानो श्लथ पड़ें हैं ।
नींद की निस्तब्धता में डूबने को
चक्षु -मानो वेदना से  हत पड़ें है ।
कल्पनाएं वर्तिका बन जल रहीं हैं ।
राख बन प्रिय ! साथ झड़ना चाहती हूँ....
मैं तुम्हारे नेह में आबद्ध होकर
वक्ष पर धर सीस मरना चाहती हूँ....

जाग अपलक चिर निशा मैं साथ प्रियतम !
जी करे है प्रीत का प्रतिमान गढ़ लूँ। 
नैन में जो राग अंकित कर गये तुम ,
बस उसे अनुवाद कर भगवान गढ़ लूँ। 
मै तुम्हारे पंथ में बन पुष्प प्रेमिल
अर्चना बनकर बिखरना चाहती हूँ। 
मैं तुम्हारे नेह में आबद्ध होकर 
वक्ष पर धर सीस मरना चाहती हूँ।
-अनुराधा पांडेय , द्वारिका, दिल्ली
 

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