कविता -- जसवीर सिंह हलधर

 
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करगिल के ऊंचे प्रांगण में । भीषण संग्राम हुआ रण में ।।
शासन था अटल बिहारी का । भारत माँ के हितकारी का ।।
मक्कार मुशर्रफ दीवाना । घाटी को चाहे हथियाना ।।
चोटी पर जगह बना बैठा । चौकी में दिखा तना बैठा ।।
दुश्मन ने सरहद पार किया । पर्वत पर यूँ अधिकार किया ।।
भारत का जब सम्मान हिला । तब फौजों को फरमान फ्री मिला ।।
अब मारो इस पाखंडी को । खुश करो काल रण चंडी को ।।
दुश्मन का लाभ निराला था। चोटी पर डेरा डाला था ।।
चोटी का उसे सहारा था । गर्दिश में वक्त हमारा था ।।
घाटी में जमी हुई सेना । ले ले हथियार साथ पैना।।
चींटी भाँती सैनिक टोली । चढ़ती पर्वत खातीं गोली ।।
तोपो को ले के चढ़ती थी । ऊँचे पर सांस उखड़ती थी ।।
तब आग बरसती थी रण में। शोणित छिटका था कण कण में ।।
नीचे से दाग दाग गोले । हमने पर्वत के पथ खोले।।
भारत माँ की जय गाते थे । दुश्मन के होश उड़ाते थे ।।
जय जय दुर्गा की बोले थे । बैरी का सीना छोले थे ।।
कुछ जय प्रलयंकर बोले थे । कुछ शंकर शंकर बोले थे ।।
आवाज उठी शंकर शंकर । सब गूंज उठे नगपति कंकर ।।
तोपें गरजीं जब पर्वत पर । दुश्मन की ओछी हरकत पर ।।
गोले बरसाना शुरू किया । तूफान मचाना शुरू किया ।।
उठ गई लपट हिम खंडों में । लग गयी आग नरमुंडों में ।।
तोपें गोले बरसाती थीं । बारूदी वज्र गिराती थीं ।।
दहलाया दुष्ट वबाली को । कर दिया तुष्ट रण काली को ।।
थी एक साथ नभ थल सेना । करती प्रहार पल पल सेना ।।
अब शातिर दुश्मन चीख उठा। अल्लाह से मांगन भीख उठा ।।
रोये आतंकी खान चचा । हे अल्लाह अब तो जान बचा ।।
चिड़ियों पर बाज झपटने सा । हिरणों को शेर झिड़कने सा ।।
भारत के योद्धा टूट पड़े । दुश्मन के छक्के छूट पड़े ।।
इतने घातक प्रहार किए । सारे दुश्मन संहार किये ।।
अब लाल दीखती थी माटी । तब दहल उठी पूरी घाटी ।। 
इस तरह युद्ध का अंत हुआ । साक्षी आकाश अनंत हुआ ।।
नदियां तरुबर पक्षी रोये । हमने भी कुछ योद्धा खोये ।।
हमने भी लाल गंवाए थे । जो कांधे पर घर आये थे ।।
योद्धा का शव ज्यों घर आया । सम्पूर्ण क्षेत्र मातम छाया ।।
दो शब्द गगन में डोल रहे । पापा जी क्यों ना बोल रहे ।।
तुतला कर पूछ रही बिटिया। क्यों उल्टी खड़ी हुई खटिया ।।
बच्ची की करुण पुकारों में । कृन्दन था चाँद सितारों में  ।।
बापू जी सिसक सिसक रोये । सब दोस्त यार आपा खोये ।।
अम्मा जी पीट रहीं छाती ।दादी ने खोया था नाती ।।
बेहोश पड़ी थी धरती पर । सधवा योद्धा की अर्थी पर ।।
सिंदूर मांग का उजड़ गया । चूड़ी से कंगन बिछड़ गया ।।
भाई का बाजू टूट गया। माई का राजू रूठ गया ।।
बहना रो रो कर कहती थी । आँखों से धारा बहती थी ।।
रक्षा का बंधन छूट गया । अब भाई मेरा रूठ गया ।।
थी गांव गली खोयीं खोयीं  । चाची ताई बूआ रोयीं ।।
अंबर में बदरी घिर आई । मानों आँसू भर भर लाई ।।
मेघों में दामिनि चमक रही । जो बलिदानों पर दमक रही ।।
मौका कश्मीर सजाने का । पीओके इधर मिलाने का ।।
आदेश चाहती थी फौजें । दुश्मन को उसके घर खोजें ।।
अगला आदेश यही आया । सेना को वापिस बुलवाया ।।
शोणित सस्ते में दान किया । बलिदानों का अपमान किया ।।
आगे न बढ़े हम घाटी में । समझौतों की परिपाटी में ।।
यह कैसी जीत हुई "हलधर । इतने योद्धा सैनिक खोकर ।।
- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून

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