श्रमिक - प्रियदर्शिनी पुष्पा

 
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न ऑंखों से ढले ऑंसू नहीं पलकों पे छाया है।

श्रमिक हैं श्रम बदौलत से अलख श्रम का जगाया है।

अगर आसाब लाना हो बनो मजदूर तुम पहले।

नहीं परवाह जीवन की मुसल्लत आजमाया है।

कराहें भूख का सहना हमें आता सदा यारों।

सुनाएं दर्द वह किसको जहाॅं मुख मौन छाया है।

यहाॅं तन से भला मत हो मगर मन से बड़े छोटे।

बिखरते  झोपड़ों में आस का चूल्हा जलाया है।

बहा जिसके पसीनें से लहू के बूॅंद का कतरा।

वहीं फुटपाथ पर देखो खुले में घर बसाया है।।

सदा बच्चे पले  मेरे  गरीबी और तंगी में ।

यही किस्मत लकीरों की समझ मन को मनाया है।।

हमें मजदूर जो कहते कभी तो झांक लो अंदर ।

दिवस इक खास न अपना सदी मैंने सजाया है।।

- प्रियदर्शिनी पुष्पा, जमशेदपुर

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