गीत - जसवीर सिंह हलधर

 
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कितनी धरा खून से सींची, मरुथल कैसे जान बचाए ।
मज़हब खोद रहे हैं खाई ,समतल कैसे जान बचाए ।।

धरती पर चातक प्यासे हैं , अम्बर में तारे भूखे हैं ।
मरुथल में पानी ही पानी ,सागर तट सारे सूखे हैं ।।
होड़ लग रही आश्वासन की ,भूख सभी को सिंहासन की ,
सारी नैतिकता कीचड़ में ,दलदल कैसे जान बचाए।।1

भरते अपनी खाली गागर ,घाट घाट पर घूम रहे हैं ।
घट की प्यास बुझाने को सब ,कंकर पत्थर चूम रहे हैं ।।
जीवन है सांसों की गिनती ,मौत न माने कोई विनती ,
धूं धूं कर जब चिता जले तो ,हलचल कैसे जान बचाए।।2

कौन जानता किसका जीवन ,अब तक कितना सफल हुआ है ।
सांस सांस पर उसका कब्ज़ा,पल पल उसका दख़ल हुआ है ।।
घटना किसे बताऊं घट की ,कैसे राह लक्ष्य से भटकी ,
नदी रेत की गोद समाई ,कलकल कैसे जान बचाए।।3

जीवन ऐसा जटिल ग्रंथ है ,एक सरल अनुवाद नहीं है ।
भिन्न भिन्न मत रखते ज्ञानी ,एकल स्वर संवाद नहीं है ।।
मुझसे कोई प्रश्न न करना, ' हलधर' अपनी राह विचरना,
भूख वासना की ज्वाला से ,दमकल कैसे जान बचाए ।।4
कितनी धरा खून से सींची मरुथल कैसे जान बचाए।।
-  जसवीर सिंह हलधर, देहरादून
 

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