मेरी कलम से - मीनू कौशिक

 
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नीम  की   छांव ,  जाने  कहाँ   खो   गई,
माँ  की  लोरी , कफ़न  ओढ़कर  सो  गई ।
लीलकर  सारा , चैन-ओ अमन , उन्नति, 
अपनी  साज़िश  में , जैसे  सफल  हो  गई ।

गफलती   नींद  में  , सोए   हैं  हम  यहांँ,
लुट  गई ,  रिश्तों  की  संपदा  सब  वहाँ ।
लौट   जाओ ,  संभालो  जरा  पांव   को ,
फिसलनी  ये  डगर ,  लेके  जाए   कहाँ ।
   ✍️ मीनू कौशिक 'तेजस्विनी ' , दिल्ली
 

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