मेरा रंग दे बसंती चोला - हरी राम यादव

 
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utkarshexpress.com - परतंत्रता बेबसी का वह नाम है जिसमें व्यक्ति के मन, आचार, विचार, व्यवहार, संस्कृति और शिक्षा आदि पर कुठाराघात होता है, उसे तहस नहस कर दिया जाता है और संबंधित व्यक्ति या समाज खून का घूंट पीकर  रह जाता है। खून का यह घूंट कभी कभी प्रलय और विनाश का कारण भी बन जाता है। खून के इस घूंट से ऐसे ऐसे महापुरुषों , राष्ट्र नायकों का जन्म होता है जो स्वयं में एक विचार होते हैं और यह विचार पूरे समाज/ राष्ट्र को एक नयी दिशा देते हैं। 
23 मार्च  1931, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की वह तारीख है जिस तारीख को  देश से ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले तीन महान क्रांतिकारियों सरदार भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव को अंग्रेजों द्वारा फांसी दी गयी थी। सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर 08 अप्रैल 1929 को केन्द्रीय असेम्बली (पुराने संसद भवन) में एक ऐसे स्थान पर बम फेंका था जहां पर कोई मौजूद नहीं था। इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ उसे चेतावनी देने के लिए यह कदम उठाया था। उनका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं था, वह केवल आतातायी अंग्रेजी हुकूमत को यह बताना चाहते थे कि हम आजादी को छीनकर लेने में भी सक्षम हैं। उन्होंने भागने की कोशिश नहीं की और बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।  
08 अप्रैल 1929 को गिरफ्तार होने से पूर्व उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन की अनेकों रैलियां और जन सभाओं में भाग लिया था। सन् 1920 में जब महात्मा गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया था उस समय सरदार भगत सिंह मात्र 13 वर्ष के थे और जब 1929 में उन्हें गिरफ्तार किया गया तब उनकी आयु महज 22 वर्ष थी। 13 अप्रैल 1919 को  जलियांवाला बाग नरसंहार ने सरदार भगत सिंह के मस्तिष्क पर गहरा असर डाला था और उसके बाद से ही वे देश की आजादी के सपने देखने लगे थे।
जब भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया उस समय भगत सिंह महज 23 साल के थे। लेकिन उनके क्रांतिकारी विचार बहुत व्यापक और उच्च कोटि के थे।  उनके विचारों ने लाखों भारतीय युवाओं को आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित किया। आज भी उनके विचार युवाओं का मार्गदर्शन करते हैं। 
इंकलाब का नारा बुलंद करने वाले भगत सिंह अपने आखिरी समय में भले ही अंग्रेजी हुकूमत की बेड़ियों में जकड़े थे लेकिन उनके विचार आजाद थे। वे कहते थे कि "बेहतर जिंदगी सिर्फ अपने तरीकों से जी जा सकती हैं। यह जिंदगी आपकी है और आपको तय करना है कि आपको जीवन में क्या करना है"। सरदार भगत सिंह कहा करते थे, मैं एक ऐसा पागल हूं, जो जेल में भी आजाद है । 
भगत सिंह जीवन के लक्ष्य को महत्व देते थे। उनका मानना था कि हमें अपने जीवन का लक्ष्य पता होना चाहिए। अगर हमें अपने लक्ष्य का पता होगा और हम अपने लक्ष्य को उद्देश्य बनाकर कार्य करेंगे तो हमें सफल होने से कोई ताकत नहीं रोक सकती है।
वतन के लिए त्याग और बलिदान उनके लिए सर्वोपरि रहा। वे कहते थे कि एक सच्चा बलिदानी वही है जो जरुरत पड़ने पर सब कुछ त्याग दे। भगत सिंह स्वयं अपनी निजी जिंदगी से प्रेम करते थे, उनकी भी महत्वाकांक्षाएं थी, उनके अपने सपने थे। लेकिन वतन पर उन्होंने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया।
सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के जीवन से  यह सीख मिलती है कि अगर देश की आन, बान और शान के खिलाफ कोई ताकत खड़ी होती है तो हमें बल के साथ- साथ वैचारिक रूप से भी उसे कुचलने की आवश्यकता है, क्योंकि विचार कभी मरते नहीं है। 
सरदार भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को गांव बंगा जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान) में हुआ था।  उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने सरदार भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर सरदार भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। 
सन् 1922 में गोरखपुर के चौरी-चौरा हत्याेकांड के बाद गांधी ने जब किसानों का साथ नहीं दिया तब भगत सिंह बहुत निराश हुए। उसके बाद उनका अहिंसा से विश्वास उठ गया । वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने का एक मात्र रास्ता है। उसके बाद वह चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में  गदर दल का हिस्सां बन गए। काकोरी काण्ड में राम प्रसाद 'बिस्मिल' सहित 4 क्रान्तिकारियों को फाँसी तथा 16 अन्य लोगों के कारावास की सजाओं से भगत सिंह इतने अधिक उद्वेलित हुए कि  चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और उसे एक नया नाम दिया "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन"। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले नवयुवक तैयार करना था।
सरदार भगतसिंह का विश्वास था कि उनकी शहादत से भारतीय जनता और उद्विग्न हो जायेगी और ऐसा उनके जिन्दा रहने से शायद ही हो पायेगा, इसी कारण उन्होंने मौत की सजा सुनाये जाने के बाद भी माफीनामा लिखने से साफ मना कर दिया था। 
23 मार्च 1931 को शाम में करीब 07 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई जबकि फांसी की तारीख एक दिन बाद की थी यानी कि 24 मार्च। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे हैं  उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।  जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फाँसी का समय हो गया है तो उन्होंने कहा "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले  "ठीक है अब चलो।"
फाँसी पर जाते समय भी सरदार भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव मस्तमौला और निश्चिंत रहे। मौत को नजदीक देखकर भी उनको जोश उबाल मार रहा था। जोश भरे शब्दों में  क्रांतिकारी गीत गाते हुए सत्य का वरण करने के लिए उनके चरण आगे बढ़ते जा रहे थे :-
मेरा रँग दे बसन्ती चोला, 
         मेरा रँग दे।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला। 
         माई रँग दे बसन्ती चोला॥
हमारे देश के इन पूज्य राष्ट्र नायकों का जितना वंदन किया जाय वह कम है क्योंकि आज हम इनके  बलिदान के कारण खुली हवा में सांस ले रहे हैं। इन्होंने देश को सर्वोपरि माना और अपनी वीरता और बलिदान से वह अमिट कहानी लिखी जिससे उस साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया जिसके साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था। इनकी पूजा उस नींव की ईंट की पूजा है जिसके ऊपर हमारे देश की प्रजातांत्रिक इमारत खड़ी हुई है। शहीदों के त्याग और बलिदान को कागजों में याद रखने के साथ साथ उनके विचारों को धरातल पर कार्य रुप में उतारना आवश्यक है, तभी उनके सपनों का भारत बन पायेगा।
 - हरी राम यादव, अयोध्या , उत्तर प्रदेश  फोन नंबर - 708781504

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