मोहे_रंगों_रँग  श्याम – सवितासिंह

 
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गुनगुनी दोपहर ढल चुकी, 
आ गयी सर्द सघन यामिनी| 
मृण्मयी नैनों में इंतजार लिए, 
प्रतीक्षारत विकल कामिनी| 
काले कुंतल अब हंस रहे, 
आनन को ये तो डस रहे| 
नागिन सी इसकी है लटें, 
बेवजह ही ये तो उलझ रहे| 
आ जाओ कि बिरहन तके, 
सुने निलय में सेज सजे| 
इंतजार है पर उर सस्मित, 
हर आहट पर होती चकित| 
वेणी के गजरे महक रहे, 
मिलने को अलि से चहक रहे| 
गजरे से पराग मधुप पिए, 
खड़ी हूँ अंजुरी भर धूप लिए| 
शलभ गजरे की ओट खड़े, 
पीने को रस वो हैं अड़े| 
वेणी से पुष्प बिखर गयी, 
काया कंचन हो निखर गयी| 
- सवितासिंह मीरा,  जमशेदपुर

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