प्रकृति का बदला - कर्नल प्रवीण त्रिपाठी

 
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त्राहि-त्राहि नित रसा कर रही, दिये मनुज के घावों से,
पूर्ण प्रकृति अब क्रुद्ध हो रही, अंध प्रगति के दावों से।
कीर्तिमान हर वर्ष टूटते, गर्म धरा है अति व्याकुल,
अतः त्रस्त हैं सारे प्राणी, मौसम में बदलावों से।

तापमान हर साल बढ़ रहा, वृक्षों के कट जाने से।
मौसम में परिवर्तन होता, हरियाली घट जाने से।
वृक्षारोपण सघन करें अब, देखभाल भी संग करें,
पर्यावरण सुरक्षित होगा, बाधाएँ हट जाने से।

आदत बदलें, युक्ति निकालें, हानि रहित हर उन्नति हो।
अंधाधुंध प्रगति को थामें, दोहन की अब अवनति हो। 
संधारणीय विकास ही अब, प्रकृति बचाने की कुंजी,
वैज्ञानिक पद्धति आपनाएँ, नित तकनीकी प्रोन्नति हो।
- कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश
 

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