पीयूष छंद - अर्चना लाल 

 
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साँस मेरी अब चली है व्यर्थ में ।
जिंदगी जीती चली बिन अर्थ में।
दर्द सारे मैं  तुम्हारेे ले रही-
गागरी खुशियाँ भरी मैं दे रही।।

मौन को धारण धरे  , बीती सदी।
दुख भरी अब जिंदगी ,मेरी बदी।
राह में फिर से अकेला कर चले-
यूँ न अब निष्प्राण मुझको कर भले।।

वेवजह की बात से तकरार है।
जिंदगी मिलती कहाँ हर बार है।
छोड़ छोटी सी अहम जीते सभी-
चाह है अनुराग की मीते..! तभी।।
- अर्चना लाल, जमशेदपुर , झारखण्ड 
 

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