कविता - जसवीर सिंह हलधर 

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लिख रहा आज मैं कविता ,सपने की एक कहानी ।
भारत माता रो रो कर ,आंखों भर लायी पानी ।।

भारत माता ने पूछा ,खोये क्यों वैभव सारे ।
गलियों में है चिंगारी,सड़कों पर है अंगारे ।।

मैं बोला मैया तेरा , वैभव अवश्य आएगा ।
मतलब कुनबे का जग को ,भारत ही समझाएगा ।।

मैया मेरा क्या मैं तो , यह लोक छोड़ जाऊंगा ।
जिंदा छंदों के द्वारा ,मैं देश राग गाऊंगा ।।

कविताएं मेरी तब भी ,जग का आव्हान करेंगी ।
गंगा की उठती लहरें ,धरती में रंग भरेंगी ।।

मैं स्वयं चिता में जलकर ,नव ज्योति जला जाऊंगा ।
सपनो की इस धरती पर ,शब्दों को बिखराऊंगा ।।

आयेंगे अलि कुंजन से ,छंदों पर मंडराने को ।
पर मैं न रहूंगा जग में ,मां तेरे गुण गाने को ।।

तब कुशल क्षेम को तेरी ,नभ से राही आयेंगे ।
कविता मंचों पर मेरी,सजधज कर वो गाएंगे ।।

कविता जो भी गायेंगे ,छंदों के रूप बदल कर ।
मंचों पर छा जाएंगे , अगली पीढ़ी के दिनकर ।।

मैंने भी तो गाया है ,बीते युग के गायन को ।
मुगलों के राजतिलक को ,अंग्रेजी वातायन को ।।

गौतम के कर्म देखकर ,मैं मन ही मन अकुलाता ।
तब सत्य अहिंसा मद में , डूबी थी भारत माता ।।

इस कारण घर में माता ,कुछ तुर्क लुटेरे आए ।
मंगोल और अफगानों ने भी तो जुर्म ढहाए ।।

अंग्रेजों ने भी आकार, लूटा था खूब खजाना ।
खंडित करके मां तुझको ,कर गए काम मनमाना ।।

घावों पर नमक लगाने ,फिर एक पुजारी आया ।
बापू कहकर जनता ने ,उसको भी गले लगाया ।।

बटबारे में मां तुझको ,कुछ ऐसे घाव मिले थे।
लाशों से धरा पटी थी ,पत्थर रो रो पिघले थे ।।

सब छोड़ पुरानी बातें ,हमने यह देश संवारा ।
चोरी से घर घुस बैठा ,अलगाव वाद का नारा ।।

देखा दिल्ली में जाकर ,यमुना कैसे रोती है ।
यम की बहना कलयुग में ,कैसे मैला ढोती है ।।

गंगा की करुण कहानी ,कैसे जग को बतलाऊं ।
प्रदूषित गंगा जल है ,देवों को पिला न पाऊं ।।

आतंकवाद ने घेरा ,धरती का वैभव सारा ।
संसार खोज ना पाया ,इन दुष्टों से छुटकारा ।।

रोता घायल मन मेरा ,कैसे अब धीर बधाऊं ।
शमशान बनी है धरती ,कैसे यह स्वर्ग बनाऊं ।।

धरती का रूप देखकर ,रोते है नभ के तारे ।
विस्फोट रोज होते है ,उठते खूनी फब्बारे ।।

मंदिर मस्जिद से उठती ,कौमी मज़हब दीवारें ।
यह देख देवता रोते ,रोती सुनसान मजारें ।।

रोजाना नारे लगते , मज़हब के नाम सदन में ।
सुनकर के क्रोध जागता ,लगती है आग बदन में ।।

छोटी बातों को लेकर ,तूफान खड़ा हो जाता ।
सड़कों पर आग भड़कती ,ऐलान बड़ा हो जाता ।।

सपने में दिनकर बोले ,छोड़ो यह राग पुराना ।
मैंने भी समझाया था , मज़हब है पागलखाना ।।

जीवन का मकसद भाई ,कुछ कर के ही जाना है ।
दो घर है इसके जग में,कुछ खोना या पाना है ।।

मदिरा छंदों की ज्यादा ,छोटा सा घट का प्याला ।
इसमें क्या आ पाएगी ,यह व्योम गंग की हाला ।।

इतिहास पूछता मुझसे ,अब मेरी क्या है गलती  ।
वो वर्तमान की ज्वाला ,मेरे घर में आ जलती  ।।

धरती पर आकर मैंने ,जीवन का सच यह देखा ।
राजे महाराजों का भी , क्या मिटा भाग्य का लेखा ।।

हर मानस का धरती पर ,जीवन होना नश्वर है ।
जो काम भले कर जाए ,उसका ही नाम अमर है ।।

अब विश्व गुरु बनने की ,तुम सही दिशा में भागो ।
जो दुश्मन आंख तरेरे ,अब सीधे गोले दागो ।।

माता बोली सुन "हलधर", अब हीन भावना त्यागो ।
अपनी कविता में गाओ , जागो रे भारत जागो ।।
 - जसवीर सिंह हलधर , देहरादून 
 

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