कविता - जसवीर सिंह हलधर 

 
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हे राम सभ्यता के पोषक,हे राम संस्कृति उद्द्घोषक ।
हे राम ब्रह्म के बीजाक्षर ,हे राम विष्णु के हस्ताक्षर ।।
जो राम सदा सुलझे सुलझे ,दिख रहे आज उलझे उलझे ।
जो राम शक्ति के परिचायक , जो राम भक्ति उन्ननयक ।।
मन से व्याकुल रीते रीते , बिन सीता के कैसे जीते ।
तू कहाँ खो गयी बैदेही ,क्यों रुष्ट हो गयी बैदेही ।।
अब देह राम निष्काम हुई ,यूँ स्वास स्वास संग्राम हुई ।
पश्चिम की ओर ढला दिनकर,सरयू की ओर चला रघुवर ।।
राघव को भांप रही सरयू ,कदमों को नाप रही सरयू ।
निर्णय से कांप रही सरयू ,बहती चुपचाप रही सरयू ।।
क्यों छोड़ छाड़ सारा वैभव ,पैदल चलते हैं क्यों राघव ।
यह सोच रही बहती बहती ,सरयू रोयी कहती कहती ।।
अब राम हिया किससे खोले ,अब गांठ जिया किससे खोले ।
अपना दुख दर्द कहाँ तोलें ,बोलें भी तो किससे बोलें ।।
सब भरत शत्रुघन छूट गए ,सीता औ लक्ष्मण छूट गए ।
धागे जगती के टूट रहे ,बंधन धरती के टूट रहे ।।
यह मौन धैर्य कब तक पहनूँ ,यह मुकुट शौर्य कब तक पहनूँ ।
भीतर भीतर गूँजा यह स्वर ,अब जाना धरती से सत्वर ।।
सरयू का संशय और बढ़ा , जूँ ही पानी पर पैर पड़ा ।
घबराकर सिमट गयी सरयू ,चरणों से लिपट गयी सरयू ।।
रो रही वाटिका सी लहरें ,जल रही त्राटिका में नहरें ।
सरयू हटकर पीछे भागे ,राघव बढ़ते आगे आगे ।।
पानी घुटनो घुटनों आया ,पानी पर दीख रही छाया ।
यह सोच रहे हैं रघुनंदन ,चिंतन में डूबा अंतर्मन ।।
आदर्शों का ये जाल बुना ,मैंने खुद ही जंजाल बुना ।
दुनिया पुरुषोत्तम मानेगी ,वैदेही सच पहचानेगी ।।
खंडित मैंने अनुबंध किये ,दूषित अपने संबंध किये ।
चिंतन में डूबे रघुनंदन ,सरयू में डूबा आधा तन ।।
लहरें छूती ज्यों ज्यों देही ,महसूस हो रही वैदेही ।
सागर जिनसे कांपे थर थर ,सरयू में डूब रहे रघुवर ।।
हे राम बताओ क्या जीता ,नतमस्तक पूछ रही सीता ।
राघव ने सुने प्रश्न सोये ,अंतस में मेघबरन रोये ।।
अब नाभि तलक आयी सरयू ,दिखती है घबरायी सरयू ।
कौदण्ड ताप से पिघल गया ,सरयू जल उसको निगल गया ।।
जो राम किये तुमने  निर्णय ,तुम भूल गए संयुक्त प्रणय ।
भूले मुझको कोलाहल में ,जगती की झूठी हलचल में ।।
अंतस खुद को ललकार रहा ,जग तारक खुद से हार रहा ।
आया है कंधों तक पानी ,तटबंधों को भी हैरानी ।।
सरयू लहरों में हलचल है ,राघव की आंखों में जल है ।
ऊपर नभ है नीचे तल है ,आगे कल है पीछे कल है ।।
सागर जिसके पग में पाया ,भूधर उड़कर लंका आया ।
तूफान बबंडर के मालिक ,मैदान समंदर के मालिक ।।
जगती से कैसे ऊब रहे ,सरयू में जाकर डूब रहे ।
मर्दन से घबराई सरयू ,गर्दन से टकराई सरयू ।।
दो नील कमल बिखरे जल में ,दो नील कमल निखरे जल में ।
राजीव नयन दिखते जल में ,त्रिलोक सयन दिखते जल में ।।
अब डूब रही सारी काया ,लहरों पर सीता की छाया ।
सरयू सागर सी दीख रही ,हरि से हरि हरना सीख रही ।।
मानो पानी में आग लगी ,सारी परजा उठ जाग भागी ।
दिनकर पानी में डूब रहा ,रघुवर धरती से ऊब रहा ।।
सरयू भी कांप रही थरथर ,राजीव नयन उभरे ऊपर ।
दो दीप जल रहे सरयू में ,जग दीप जल रहे सरयू में ।।
हाथों में पुष्पक माल लिए ,स्वागत में पूजा थाल लिए ।
वैदेही लहरों पर आयी ,दुनिया ने देखी परछायी ।।
ज्योयिर्मय अब आकाश हुआ ,आलौकिक बृहद प्रकाश हुआ ।
लक्ष्मी का रूप धरे सीता ,असली प्रारूप भरे सीता ।।
अब लुप्त हुए राजीव नयन ,ज्योतिर्मय रूप लिए भगवन ।
अब धरती से जगदीश चला ,युगधर्म सिखाकर ईश चला ।।
अलौकिक रूप दिखा सबको ,असली प्रारूप दिखा सबको ।
केवल नर रूप विसर्जित है ,नारायण सबको अर्जित है ।।
हर नर में रहते नारायण ,घर घर में रहते नारायण ।
हर नारि हमारी सीता है ,सच्ची है परम पुनिता है ।।
सब राम नाम की यह माया ,कलयुग में भी मिलती छाया ।
जन गण में राम विराजे हैं ,कण कण में राम विराजे हैं ।।
यह कथा जानकी रघुवर की ,आधार शिला है घर घर की ।
नर रूप धरे नारायण की ,लीला कर्तव्य परायण की ।।
जीवन गाथा पुरुषोत्तम की ,कथनी करनी नर उत्तम की ।
परुषोत्तम कहती रामायण ,तुलसी बतलाये नारायण ।।
भवभूति किये पैदा संशय ,संवेदनहीन दिया परिचय ।
कुछ मिथ्य कथनक लिख डाले ,कुछ कथ्य भयानक लिख डाले ।।
उत्तर रामायण नाटक है ,ये बौद्ध काल का फाटक है ।
सीता वनवास लिखा उसमें ,बौद्धिक संत्रास लिखा उसमें ।।
राम सोम हैं गरल नहीं है ,ठोस तत्व हैं तरल नहीं हैं ।
परुषार्थ राम का जीवन था ,परमार्थ राम का जीवन था ।।
खद्दर मलमल के मुल्य हुई ,सरयू गंगा सम तुल्य हुई ।
काशी सा मान अयोध्या का ,जग में सम्मान अयोध्या का ।।
- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून

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