कविता - जसवीर सिंह हलधर

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शिव की जटाओं संग , गिरि की लटाओं संग ,
मात की भुजाओं संग ,सोयी थी माँ की लली ।
भागीरथ ने बुलाई  ,सिंधु से मिलन  आयी ,
चट्टानों से टकराई ,छोड़ मात की गली ।।
गिरी ने विरोध किया ,मात गृह छोड़ दिया ,
मन में बसे थे पीया ,भाग  पड़ी एकली ।
कंकरों को साथ लिया ,शंकर को छोड़ दिया ,
मानस की भूख प्यास ,दूर करने चली ।।
                 
अँखियाँ बचाती आयी ,छिपती छिपाती आयी ,
राह खुद ही बनायी ,मैं सयानी हो गयी ।
दूब के मैदान दिए ,खेत खलिहान दिए ,
फसल  बागान दिए ,गंगे रानी हो गयी ।।
कृषि नव विधि लायी औषधि की निधि लायी ,
बोले सब गंगे मायी , मैं रूहानी हो गयी ।
अब बस यही दुख ,मानस ने छीना सुख ,
मैं नहीं हुई विमुख , मैं दीवानी हो गयी ।।
               
गंदगी का मिला साथ ,मानव ने छोड़ा हाथ ,
मिल नहीं पाए नाथ , जब मैं अशुद्ध हुई ।
पथ किया टेड़ा मेडा ,बांध डैम का बखेड़ा ,
गंदे नालों को उलेड़ा , इस लिए क्रुद्ध हुई ।।
उद्दोगों ने गंदा किया ,पंडितों ने धंधा किया ,
मेरे नाम चंदा किया ,नहीं मैं शुद्ध हुई ।
गंदगी का हुआ वास ,कैसे जाऊं पिया पास ,
सिंधु से मिलन आस ,खाड़ी अवरुद्ध हुई ।।
             
यदि मूंद लूंगी नैन ,धरा पै मील न चैन ,
दिन में भी होगी रैन , ऐसी मेरी चाल है ।
देखे मैंने तीनों काल ,पैरों के नीचे पाताल ,
बाप मेरा महाकाल ,काल का भी काल है ।।
मुझसे ही जल पावें ,जलने किनारे आवें ,
हड्डियां भी विसरावें , यही तो मलाल है ।
यदि नहीं शुद्ध किया , और मुझे क्रुद्ध किया ,
मैंने यदि युद्ध किया , बाढ़ या अकाल है ।।
 - जसवीर सिंह हलधर, देहरादून

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