कविता (प्राणाधिक) - अनुराधा पांडेय 

 
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आज पाती लिख रही हूँ
प्रीत की रस गंध लेकर।
भोर की पहली किरण को,
घोलकर इस तूलिका  में,
कुछ अलंकृत शब्द मैंने
प्यार के  इसमें पिरोए
पत्र का हर शब्द प्रियवर!
कह रहा-तू..आ मुझे छू.....
है प्रतीक्षारत प्रिये उर
संदली हर कामना प्रिय!
बस इसी विश्वास पर आ....
कोटिशः  वैराग्य   अर्पित।
सद्य खुशियां बढ़ रही प्रिय!
आज कविमन बह रहा है......
पत्र तो  सुन, वो कड़ी है
जो छुए तेरे हृदय को.....
मीत ये पाती नहीँ है
निज हृदय पट खोल भेजा,
शब्द में खुद को पिरोकर
अश्रु में उर घोल भेजा
शब्द हैं सीमित बहुत पर,
भाव प्रिय! इसके प्रबल हैं
पीर कितनी है बडी री!
भाव मन के आज पढ़ना।
प्रीत का हर शब्द साजन
पर करे अभिषेक तेरा,
श्वांस के आवागमन में 
एक तेरा वास है अब
नेह से बस लिख दिया पिय
दग्ध गुजरी कुछ व्यथाएं
साथ में लो टांक दी हैं
शाम जो हमने बिताए.....
युगल नयनों ने रची जब,
प्यार की अनगिन ऋचाएं...
पत्र को उर से लगा प्रिय!
तू तनिक आभास करना 
यदि कहीं संशय लगे तो 
प्रीत भावाभास  करना।
एक  अंतर्द्वंद  है प्रिय!
जो मुझे लिखने न दे,कुछ....
रिक्त कुछ उदभास है सुन
दृग हृदय के खोल पढ़ना।
आत्मा ही दे चुकी तो......
शब्द क्यों कर आज गहना।
- अनुराधा पाण्डेय, द्वारिका, नई दिल्ली

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