गणतंत्र दिवस : भारतीय गणतंत्र में कितनी उत्तरदायी है नौकरशाही - पवन वर्मा

 
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utkarshexpress.com - प्रशासन व्यवस्था कोई भी हो, उसमें कार्यरत अधिकारियों एवं कर्मचारियों का अपना विशेष महत्व होता है। भारत में जब राजतंत्र प्रचलित था, तब राजा को महान अथवा निकम्मा बनाने का काम अधिकारी एवं कर्मचारी ही करते थे। लोकतंत्र में राजनैतिक कर्ताधर्ताओं के निर्णयों, नीतियों और कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने का दायित्व ही स्थायी कार्यपालिका अथवा नागरिक सेवाओं पर ही निर्भर रहता है। राजनैतिक कर्ताधत्र्ता प्रशासनिक तकनीक एवं जटिलताओं से अपरिचित होते हैं, इसलिए उन्हें इसी स्थायी कार्यपालिका पर निर्भर रहना पड़ता है। पश्चिम देशों में इस स्थायी कार्यपालिका में पनपी विकृतियों एवं विशेषताओं के कारण इसे 'ब्यूरोक्रेसीÓ का नाम दिया गया । भारत में इस ब्यूरोके्रसी का नामकरण हुआ-'नौकरशाहीÓ।
राजनैतिक नेतृत्व में होने वाले परिवर्तन के कारण विभिन्न देशों के अतिरिक्त भारत में भी नौकरशाही दिनों दिन मजबूत होती जा रही है। राजनैतिक नेतृत्व में प्रशासनिक कुशलता के अभाव ने भी इस मजबूती को बढ़ाया है। अब तो हालत यह है कि नीति निर्धारण का जो दायित्व राजनैतिक नेतृत्व के पास था, वह भी अप्रत्यक्ष रुप से नौकरशाही के हाथों में चला गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था की नीतियां एवं कार्यक्रम लागू करने में हमारे राजनेता इतने असफल हुए कि हमें सारे देश में ऐसा एक भी राजनेता नहीं मिल सका जो इस देश की अर्थव्यवस्था को संचालित कर सके। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पुराने नौकरशाह है। उनका राजनीति एवं आम जनता से कभी कोई संबंध नहीं रहा, पर देश की अर्थ व्यवस्था में सुधार के नाम पर उन्हें कोई चुनाव जीते बिना ही वित्त मंत्री बना दिया गया था। बाद में उन्हें राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित करवाया गया। अब वे प्रधानमंत्री हैं, संभवत: इसीलिए यह आरोप लगाया जाता है कि भारत के वर्तमान आर्थिक सुधार आम जनता के हित में नहीं हैं।
भारत की वर्तमान नौकरशाही ब्रिटिश व्यवस्था की ही देन है। ब्रिटिशकाल के नौकरशाहों का प्रशासनिक दृष्टि कोण अत्यंत संकुचित एवं अविकसित था। वे प्रशासन के प्रति उत्तरदायी होते थे। जो आम जनता से जितना दूर रहता था, उसे उतना कुशल माना जाता था। जनता से कटु एवं क्रूर व्यवहार करने वाले अधिकारी उस समय सख्त एवं अच्छे प्रशासक माने जाते थे। भारत को जब आजादी मिली तो नौकरशाही का स्वरूप तो ज्यों का त्यों रखा गया पर उससे यह अपेक्षा की गई कि वह जनोन्मुखी हो। उसकी संरचना, कार्यप्रणाली, अधिकारों एवं दृष्टिïकोण में परिवर्तन के कोई प्रयास आज तक नहीं हुए। नतीजे में भारतीय प्रजातंत्र में आज भी नौकरशाही आभिजात्य वर्ग बनी हुई है। वह आम जनता से अपने आपको श्रेष्ठï तथा विशेषाधिकार सम्पन्न मानती है। भारतीय नौकरशाही में एक और दोष ने प्रवेश किया है कि उच्च वर्ग के लोग ही इस नौकरशाही में प्रवेश पा सके। धनाढ्य एवं शिक्षित पारिवारिक पृष्ठïभूमि के नौजवान ही नौकरशाही में दाखिल हुए। नतीजे में आज अधिकांश भारतीय अधिकारी समानता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, दलितों  एवं पिछड़ों के उद्धार आदि के सिद्धांतों को नेताओं की राजनैतिक बकवास से ज्यादा मानने को तैयार नहीं हैं। प्रजातंत्र, लोक कल्याणकारी राज्य, धर्म निरपेक्षता, वर्गविहीन समाज आदि के प्रति भी उनका दृष्टिïकोण सकारात्मक नहीं है। उनके मन में आम जनता के प्रति उदारता, करुणा एवं दया की भावना भी नहीं पनप पायी है। वे अपने आपको सुविधा एवं अधिकारभोगी समाज का ही अंग मानते आ रहे हैं। इसका एक उदाहरण यह है कि जब भारत में समाजवादी समाज व्यवस्था का सिद्धांत चरमोत्कर्ष पर था, तब सार्वजनिक क्षेत्र में कई उपक्रम स्थापित किए गए। इन उपक्रमों के प्रबंध के लिए इनके सर्वोच्च पदों पर भी प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए गए। इन नियुक्तियों के पीछे धारणा यही थी कि हमारे प्रशासनिक अधिकारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते हैं। नतीजा यह निकला कि अच्छे प्रशासक कहे जाने वाले अधिकारी, अच्छे प्रबंधक सिद्ध नहीं हो सके और आज अधिकांंश सार्वजनिक उपक्रम भारी घाटे में चल रहे हैं। इन नौकरशाहों में आज तक व्यावसायिक दृष्टिïकोण विकसित नहीं हो पाया। परिणाम यह निकला कि जिन उद्योगों में निजी उद्योगपति भारी मुनाफा कमा रहे हैं, वहां सार्वजनिक क्षेत्र में चल रहे उन्हीं उद्योगों में घाटा निरंतर बढ़ता जा रहा है।
भारतीय नौकरशाही की एक विशेषता यह रही कि वह किसी भी क्षेत्र में रही हो, उसने अपनी सुविधाओं एवं विलासिता के साधनों का विस्तार किया है। भारत में विकास कार्य हुए हों या नहीं किन्तु नौकरशाही के अधिकारों और सुविधाओं में निरंतर विकास और विस्तार हुआ है। इन नौकरशाहों पर कितना ज्यादा खर्च हो रहा है, इसका उदाहरण आज हर जिला मुख्यालय पर देखने को मिल सकता है। आजादी के प्रारंभिक दिनों में जिलों में दो-तीन शासकीय वाहन होते थे पर आज उनकी संख्या दर्जनों में है।
शासकीय आवासों, भवनों, फर्नीचर, कूलर, एयर कंडीशनर, कम्प्यूटर, टाइप राईटर आदि पर होने वाले व्यय में सन् 1947 की तुलना में अब सौ गुना अधिक खर्च हो रहा है। विदेशों में प्रशिक्षण यात्रा एवं अन्य भत्तों में भी भारी वृद्धि हुई है। भारत की अर्थ व्यवस्था के तहस-नहस होने का एक बड़ा कारण भारतीय नौकरशाही के वेतन, भत्तों एवं सुविधाओं में भारी वृद्धि है। यह वृद्धि आगे और बढऩे वाली है, क्योंकि हमारी नौकरशाही में आभिजात्य वर्ग बनने की ललक एवं लालसा निरंतर बढ़ती जा रही है। नौकरशाही का यह विकृत स्वरूप भारत में ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी देखने को मिलता है। ब्रिटेन में तो अब वहां की नौकरशाही को 'नवीन तानाशाही’की संज्ञा दी जाने लगी है।
 भारत में भी कमोबेश यही स्थिति है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि भारत के राजनैतिक नेतृत्व में योग्यता, सूझबूझ एवं चतुराई का भारी अभाव है। प्रजातंत्र में नेताओं को जनता के हितों का संरक्षक माना जाता है पर भारतीय नेता अपना यह दायित्व लगभग भूल चुके हैं। उन्होंने नौकरशाही पर नियंत्रण रखना बिल्कुल छोड़ ही दिया है। इसके विपरीत उन्होंने नौकरशाही से गठबंधन करके अनुचित एवं स्वार्थलिप्सापूर्ण कार्य कराने प्रारंभ कर दिये है। आज भारत की प्रशासनिक व्यवस्था, नौकरशाही एवं स्वार्थी राजनीतिज्ञों के गठजोड़ की धुरी पर टिकी हुई है। इस स्थिति ने भारतीय नौकरशाही को निरंकुश, स्वच्छंद, सुविधा लोलुप एवं जन विमुख बना दिया है। आधुनिक परिवेश में भारतीय नौकरशाही, जनता के बजाय अपनी सुविधाओं एवं कल्याण के लिए ज्यादा उत्तरदायी है।
भारतीय संविधान में इसी नौकरशाही को 'कार्यपालिका’ के नाम से संबोधित किया गया है। क्या हमारे संविधान निर्माताओं ने स्वप्र में भी यह सोचा होगा कि हम जिस कार्यपालिका को भारतीय गणतंत्र का महत्वपूर्ण अंग बनाने जा रहे हैं, वह जनता के प्रति उत्तरदायी होने के बजाय, उसके प्रति उपेक्षा भाव रखेगी। वह जन कल्याण के बजाय अपने कल्याण में अधिक रुचि लेगी। यह शोषितों, दलितों एवं पिछड़ों के कल्याण के बजाय, अपने आपको अधिक अधिकार सम्पन्न एवं अधिनायकवादी बनाने का प्रयास करेगी। आज की नौकरशाही जनता एवं प्रजातंत्र के बजाय अपने विकास एवं कल्याण के प्रति अधिक उत्तरदायी बन गई है। भारतीय राजनीति में आज जो अस्थिरता, उठा-पटक, स्वार्थलिप्सा एवं खींचतान चल रही है, उससे नौकरशाही और अधिक अधिनायकवादी (तानाशाह) बनने जा रही है। जनता के प्रति उसके उत्तरदायित्व की चिंता किसी को न आज है और न भविष्य में रहने वाली है।
भारत के करोड़ों निरीह, अबोध, अशिक्षित नागरिक जो इस देश का भाग्य और भविष्य निर्धारित करने वाले कहे जाते हैं, इसी तरह साहबों के दफ्तरों के सामने अर्जियां लेकर खड़े रहेंगे। भारतीय प्रजातंत्र में भी उनकी वही नियति रहने वाली है, जो ब्रिटिश राजतंत्र या किसी सामंती शासन व्यवस्था में थी। (विभूति फीचर्स)

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