रोटी (कहानी) - डॉ. सुधाकर आशावादी

 
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Utkarshexpress.com - आज फिर वही हुआ, थाली में भोजन परोसा ही था कि आंखें नम हो गईं।
मिहिर के साथ अक्सर ऐसा ही होता है, थका-मांदा रात्रि में घर लौटता है तो घर ऐसा लगता है जैसे उसे काटने को दौड़ रहा है हो, बरामदे में चिमगादड़ का निरंतर घूमना जारी है। वह पूरब से पश्चिम की ओर उड़ती रहती है, जबसे बल्ब फ्यूज हुआ है, उसे बदलकर नया लगाने का मन ही नहीं किया। अरे!  जब मन में ही अंधेरे ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया हो, तब बल्ब जलाने की औपचारिकता निभाने भर से क्या लाभ... यही सोचकर मिहिर बल्ब खरीदकर नहीं लाया। वैसे भी कई बार इलेक्ट्रॉनिक की दुकान के सामने से निकलता है परन्तु बरामदे में पसरने वाले अंधेरे का स्मरण नहीं हो पाता।
बस ले-देकर एक कमरा पूरे मकान में ऐसा रह गया है, जिसकी ट्यूबलाइट फ्यूज नहीं हुई, न जाने कब से अपना दायित्व निभा रही है। हो सकता है कि घर के विद्युत उपकरणों से उसने कोई सीख ले ली हो कि जब घर के मालिक को किसी की परवाह नहीं है, एक बार फ्यूज होने के बाद वह बल्ब नहीं बदलता तो फ्यूज होकर क्यों अपने कत्र्तव्य से विमुख हो। पर मिहिर के लिए इन बेजान वस्तुओं का क्या मोल। घर हरा-भरा था, तब वह भी खुशियों में चार चांद लगाने के लिए तत्पर रहता था, किन्तु जब घर की मालकिन ही नहीं, तब वह किसके लिए घर को चमकाए, चहकाए।
पूरे पांच बरस हो गए मिहिर को एकाकीपन से जूझते हुए। वैदेही थी तो सब कुछ ठीक-ठाक था। सारी खुशियां जैसे घर के आंगन में अठखेलियां किया करती थीं, दो आज्ञाकारी पुत्र वैभव व किशोर तथा दो फिरकनियां-सी बेटी नेहा व आंचल। वैदेही के इर्द-गिर्द हर समय शिकवे, शिकायतें व छेडख़ानी का दौर चलता रहा। किशोर शिकायत करता- 'मां! भैया मुझे चिढ़ा रहा है, जब भी तुमसे भैया की कोई बताता हूं तभी छेड़ता है जा अम्मा की गोद में घुस जा, अभी तो तेरी दूध पीने की उम्र है...। नेहा कहती- 'देखो मां! आंचल मान नहीं रही है, आज फिर इसने मेरी फ्राक पहनकर गंदी कर दी। छि... में इसकी उतरन नहीं पहनूंगी।‘ शिकायत-दर-शिकायत, फिर सफाई का दौर...। मां कहती- 'यह घर है या अदालत। किस-किस के झगड़े निपटाऊं।‘ फिर प्यार भरी डांट लगाती- 'सुधर जाओ वरना तुम्हारे पापा से शिकायत कर दूंगी, बच्चे एकदम सहम जाते।‘
मिहिर के आने से पहले ही वैभव अपनी मेज पर किताब खोलकर बैठ जाता, किशोर भी गृहकार्य में जुट जाता, नेहा, मां के साथ किचिन में चली जाती तथा मां का हाथ बंटाती। आंचल भी अगले दिन के लिए अपना स्कूल बेग संवारने में जुट जाती। टाइम-टेबिल के अनुसार पुस्तकें व कापियां बैग में रखती तथा यह उपक्रम तब तक करती रहती जब तक मिहिर उसे आवाज देकर न बुलाते। मिहिर के आते ही उसके कान मिहिर की ओर होते, आते ही मिहिर दो पल के लिए सुस्ताता फिर आवाज देता- 'बेटी आंचल... एक गिलास पानी तो लाना...।‘
'जी पापा... अभी लाई...।‘ कहकर आंचल इस प्रकार अपना बैग ठूंसकर एक ओर सरकाती, जैसा बहुत भारी-भरकम काम कर रही हो फिर कुछ ही क्षण में पानी का गिलास लेकर पापा के सम्मुख खड़ी हो जाती।
'इस बार पढ़ाई तो ठीक चल रही है न...।‘ मिहिर प्रश्न करता।
'जी- पापा...।‘ यह संक्षिप्त उत्तर देती।
'तेरी बहुत शिकायतें आ रही हैं... इस बार ढंग से पढ़ ले, नम्बर अच्छे नहीं आए तो सरकारी स्कूल में डाल दूंगा...।‘ क्रोध दर्शाते हुए कहता मिहिर।
आंचल चुप्पी साध जाती। रोज-रोज एक ही प्रकार के वाक्य को सुनकर कब तक डरे...पापा रोज यही धमकी देते हैं, किन्तु अमल नहीं करते, आंचल के नम्बर कभी अच्छे नहीं आए, तिस पर पापा ने महंगे स्कूल से उसका नाम नहीं कटाया, पता नहीं कब इसको अक्ल आ जाए तथा यह ढंग से पढऩा शुरू कर दे।
वैदेही भी आंखों ही आंखों में आंचल को घुड़कती कहती- 'सुधर जा... नहीं तो बहुत पछताएगी, सहेलियों के साथ घूमना-फिरना छोड़... पढ़ाई में मन लगा, नहीं तो जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी।‘
आंचल पर जैसे कोई फर्क नहीं पड़ता, नए जमाने की लड़की आंचल को टिपटाप रहना ही पसन्द है। नए कपड़े आए नहीं कि पहनकर बैठ गई, फिर किसी उत्सव में जाने के नाम पर वैसी की वैसी- 'नए कपड़े नहीं है, क्या पहनकर जाऊं...।‘
वैदेही कुढ़कर रह जाती- 'हे भगवान...! यह लड़की है या बला... एक भी तो आदत अच्छी नहीं। ‘
आंचल बेफ्रिक... अपने में ही मस्त।
नेहा और आंचल में यही फर्क है। नेहा बचपन से ही बड़ी है, आंचल के पैदा होने के बाद जैसे उसके कोई शौक नहीं रह गए हैं... वह मिहिर की मजबूरी समझती है, इसलिए इच्छाएं नहीं पालती, घर में पापा अकेले कमाने वाले हैं, फिर इन पर बच्चों की पढ़ाई का बोझ क्या कम है...।
वैदेही स्वयं उसे बाजार ले जाकर सामान दिलाती है, बार-बार कहती है- 'तू इतनी बड़ी नहीं हुई, जितना अपने आप को समझती है, अच्छी तरह रहा कर...।‘
नेहा, मां की आंखों को झांकती है, कहती है- 'मां... आपने भी तो पिछले दो बरस से कोई नई साड़ी नहीं खरीदी...।‘
मेरी बात छोड़... अब मैं किसे नई साड़ी दिखाऊंगी... तू लड़की है... लड़कियों की तरह रहना सीख... हर समय किताबी कीड़ा बनी रहती है...।‘मां बनावटी क्रोध दिखाती।
नेहा, मां के इस व्यवहार से मुस्कुराए बिना नहीं रह पाती तथा कहती- 'मां जब तुम्हें गुस्सा नहीं आता, तो गुस्सा दिखाने का नाटक क्यों करती हो...?’
वैभव भी अपनी पढ़ाई के प्रति गम्भीर था। मिहिर पर अधिक बोझ न पड़े, सो कुछ ट्यूशन करके वह अपना जेब खर्च निकाल ही लेता था, उसकी देखा-देखी किशोर भी मन लगाकर पढऩे लगा था, जिसके सुपरिणाम भी आए। वैभव को केन्द्रीय कार्यालय में क्लर्की मिल गई तथा किशोर को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला। दाखिले की फीस की जुगाड़ मिहिर ने ऋण लेकर की। बच्चों के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता, यही सोचकर। वैदेही का भरपूर समर्थन जो था मिहिर के साथ, वैदेही जैसे भी रही, स्वयं अभावों से जूझी किन्तु बच्चों को कभी एहसास तक न होने दिया।
वैदेही थी, तब सब कुछ ठीक-ठाक था, नियमित भी। सुबह समय पर नाश्ता, ऑफिस के लिए लंच, शाम को आते ही नाश्ता, फिर रात्रि भोज। वैदेही के बनाए हुए भोजन की बात ही कुछ और थी। यह उसकी अंगुलियों के स्पर्श का प्रभाव था या उसकी आत्मीयता का। भोजन में स्वाद ऐसा कि अंगुलियां चाटते रह जाओ...।
उस भोजन का स्मरण कर मिहिर जैसे यथार्थ पर आ गया, सामने थाली में जो भोजन परसकर रखा था, वह मजबूरी का भोजन था, जैसे पेट भरने के लिए कुछ सामान इकट्इा कर लिया हो, सुबह छह रोटी बनाई थी, तीन सुबह ही मिर्च की चटनी बनाकर जल्दी-जल्दी ढकोस कर मिहिर काम पर चला गया था, शेष तीन शाम के लिए रख छोड़ी थीं। सब्जी के अभाव में बाजार से चाट का एक दोना पैक करा लाया था। नित्य इस प्रकार का अनियमित भोजन मिहिर की विवशता बन चुका था, चूंकि भोजन के समय कुछ न कुछ निगलना है, इसलिए सुबह की तीन रोटियों के साथ चाट थाली में परसकर बैठ गया था मिहिर। साथ में पानी का गिलास, यदि गले में फंदा लग जाए तो पानी पीकर हलक से भोजन का कौर उदर में धकेल दे, ताकि मुंह से उदर तक का गलियारा साफ हो जाए। अन्यथा अक्सर ऐसा ही होता है, भोजन करते समय अतीत का स्मरण होते हुए कुछ मौन संवाद गले की फांस बनकर भोजन का मार्ग अवरुद्ध कर ही देते हैं।
वैदेही ने जीते जी घर में कुछ अनर्थ नहीं होने दिया। उसके बाद जीवनचर्चा के अर्थ ही बदल गए। कितने चाव से वैभव का विवाह करके लाई थी वैदेही। अपने पुराने गहनों को तुड़वाकर नए गहने बनवाए थे वैदेही ने, आधुनिक डिजाइन के। मिहिर ने कहा भी- 'भाग्यवान... ऐसा उत्कृष्टï सोना आजकल मिलता नहीं है फिर क्यों इसका नाश कर रही है, सुनार किसी का सगा नहीं होता।‘
बदले में वैदेही मुस्कुराए बिना न रह सकी थी। उसने कहा था- 'अजी... तुम कब से घर के मामलों में टांग अड़ाने लगे, तुमने तो आज तक मेरे गहनों को नहीं देखा, फिर आज...।‘
मिहिर से कुछ कहते न बना, तनिक देर चुप रहकर बोला- 'तुम्हारी मर्जी जैसे चाहो करो।‘
'वो तो मैं कर ही रही हूं... लोक रिवाज तो निभाने ही हैं। वैभव के ब्याह में ससुराल वाले गहने और जेवर ही तो देखेंगे... रामनौमी में से बड़ी बहू के गहने बन जाएंगे और तगड़ी में से छोटी बहू के। अरे! गहनों का हिसाब किताब तो मैंने लगा रखा है... लड़कियों के लिए मेरा गले का सैट और हाथों के भारी कंगन काम आ जाएंगे। सोना खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी।‘ बड़े इत्मीनान से कहा था वैदेही ने जैसे गहनों का पूरा गणित उसके दिमाग में बैठा हो।
मिहिर उस दिन वैदेही की समायोजन और न्याय क्षमता का लोहा मान गया था तथा समझ गया था कि उसकी कम तनख्वाह में भी व्यवस्थित गुजारे का राज क्या है। परिवार की संरचना में वर्तमान और भविष्य के प्रति सामंजस्य की कला का उत्कृष्ट नमूना प्रतीत हो रही थी वैदेही। मिहिर ने चुटकी भी ली- 'भाग्यवान... तुम्हें तो किसी बड़े संस्थान की योजना प्रमुख होना  चाहिए, नाहक ही गरीब के घर उलझी हो...।‘
मुस्कुराई थी वैदेही, फिर कुछ शब्द फूटे- 'तुम भी बस यूं ही...।‘
वैभव की बहू सगुना को भी किसी कमी का अहसास नहीं होने दिया था वैदेही ने। हां, सगुना के आने के बाद मिहिर पर कुछ अघोषित प्रतिबंध अवश्य लग गए थे, अब वह बैठक तक ही सिमटकर रह गया था। बैठक में ही सोना वहीं उठना-बैठना, वैदेही को जब भी तनमन की कुछ बात करनी होती, वह बैठक में ही चली जाती। घर-गृहस्थी की गाड़ी अच्छी तरह चल रही थी, वैभव भी घर खर्च में हाथ बंटा रहा था। एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह घर की समृद्धि में योगदान दे रहा था। बड़ी बेटी नेहा के लिए सुयोग्य वर की तलाश जारी थी।
मिहिर प्रत्येक छुट्टी का उपयोग नेहा के लिए योग्य वर ढूंढऩे के लिए करते। एम.ए. पूरा करके नेहा घर में बैठ गई थी। वैदेही का मानना भी यही था कि लड़की की अधिक योग्यता वर चयन में बाधाएं अधिक उत्पन्न करती हैं, क्योंकि सवाल वधू की शैक्षणिक योग्यता वाले वर के चयन तक सीमित हो जाता है। मिहिर के लिए भी यही बाधा बना। जहां भी जाता, पहले योग्यता, फिर आर्थिक स्थिति पर जाकर बात खत्म हो जाती। लड़के वाले शादी के अनुमानित व्यय के बारे में पूछते तथा कोई न कोई बहाना बनाकर बात आगे बढऩे से पहले ही समाप्त कर देते। बेबस मिहिर मन मसोसकर रह जाता, घर में चर्चा करता तो वैदेही दु:खी हो जाती।
फिर वैदेही को न जाने क्या हुआ, वह कौन-सी चिन्ता में घुलती चली गई, नेहा के विवाह में विलंब की चिन्ता थी अथवा अन्य कुछ। वैदेही ने खाट पकड़ ली, अनेक विशेषज्ञ चिकित्सकों को दिखाया, किन्तु रोग पकड़ में नहीं आया। मात्र दो माह के अन्तराल में ही वैदेही की आत्मा नश्वर देह से प्रयाण कर गई, बिलखते रह गए परिजन। एकाकी हो गए मिहिर, किससे बात करें, किससे अपने दु:ख-दर्द बांटें, किसे अपना समझकर तन-मन की कहें।
मिहिर को घर लौटते ही रिक्तता का आभास होता, तिस पर नेहा की बढ़ती उम्र का सवाल, आंचल की भी विवाह योग्य आयु। एक साथ ही मिहिर जैसे अनेक उत्तरदायित्वों से घिर गए। अब माता एवं पिता दोनों के उत्तरदायित्वों का निर्वाह ही मिहिर को करना था।
समय बीतने लगा, घर में नेहा, आंचल एवं उनकी भाभी अर्थात वैभव की पत्नी के बीच भी कुछ खिंचाव आ गया। बिन मां की बेटियों को जो स्नेह अपनी भाभी से मिलना था, उस स्नेह के स्थान पर उन्हें भाभी की प्रताडऩा मिलने लगी। वैभव से शिकायत की, उसका भी कोई लाभ न हुआ। विवाह के बाद माता-पिता और भाई-बहिनों की अपेक्षा पत्नी ही अधिक प्रिय होती है, वैभव की चुप्पी ने यही जता दिया। नेहा गम्भीर थी, सो उसने चुप रहने में ही भलाई समझी, किन्तु आंचल से चुप न रहा गया, उसने जो मन में आया भाभी को सुना दिया।
बात बिगडऩे का अंदेशा था। मिहिर की बांयी आंख महीनों फड़कती रही, जिससे मिहिर आशंकित रहने लगे कि अवश्य ही परिवार में कोई अनहोनी घटित होने वाली है, कहा भी गया है कि आशंकाएं, अज्ञात भय किसी वास्तविक घटना के होने का संकेत देने लगते हैं, मिहिर के साथ भी वही हुआ।
मिहिर ऑफिस से लौटे तो बहू को सामान बांधते हुए पाया। मिहिर एक बारगी कुछ समझ न पाए, उन्होंने हिम्मत जुटाकर बहू से पूछा- 'बेटी सुगना यह क्या कर रही हो... घर का सामान क्यों बांध रही हो?’
बहू कुछ देर चुप रही, फिर बोली- 'पिताजी यह प्रश्न यदि आप अपने बेटे से करें तो अच्छा है। उन्होंने ही मुझे सामान बांधने का आदेश दिया है।‘
मिहिर के पैरों तले जैसे धरती खिसक गई, वह लडख़ड़ाते कदमों से वैभव के कमरे में प्रवेश कर गए तथा बोले- 'बेटा- इस घर में तुम्हें कोई समस्या है?’
'जी नहीं’ वैभव ने कहा।
'फिर यह सामान बांधकर कहां ले जा रहे हो’  मिहिर ने प्रश्न किया।
'पिताजी, मैंने नई कॉलोनी में अपने लिए रहने की व्यवस्था कर ली है।‘
'मगर क्यों... अपना घर होते हुए भी तुमने यह फैसला क्यों किया?’ मिहिर की समझ में नहीं आ रहा था कि बिना पूर्व सूचना दिए वैभव इस प्रकार का कदम क्यों उठा रहा है।
'पिताजी.. अब मेरी भी गृहस्थी है, आवश्यक नहीं कि मैं आपके साथ ही रहूं।‘ वैभव ने दो टूक अपनी बात कह दी। मिहिर को लगा जैसे उनका दांया बाजू कटकर दूर जा गिरा हो तथा शेष शरीर पीड़ा से छटपटा रहा हो किंतु कुछ कहने की हिम्मत उनमें शेष नहीं रही।
बिना विलम्ब किए वैभव घर छोड़कर चला गया। शेष रह गए तीन प्राणी- मिहिर, नेहा और आंचल। किशोर हॉस्टल में रहकर पढ़ाई में व्यस्त था, घर में घटित घटनाक्रम से अनभिज्ञ यदि घर में होता भी तो क्या कर लेता, यदि रिश्तों में अलगाव की खलल उत्पन्न हो जाए तो घर का वातावरण फटे दूध-सा हो ही जाता है।
दो माह बाद ही मिहिर की सेवानिवृत्ति निश्चित थी। सेवानिवृत्ति के उपरांत जैसे-तैसे मिहिर ने नेहा और आंचल के विवाह किए। वैभव द्वारा आर्थिक सहायता करना तो दूर रहा, वह विवाह में सम्मिलित भी नहीं हुआ। अवश्य ही कुछ गहरी बात रही होगी किंतु मिहिर उसके इस व्यवहार से अचंभित अवश्य थे। पुत्र का यह बर्ताव उन्हें कतई स्वीकार नहीं था फिर भी करते तो क्या करते, कटे वृक्ष की तरह अस्तित्वहीन से रह गए। किशोर की पढ़ाई अभी शेष थी, उसकी पढ़ाई का खर्चा भी कम न था। प्रोविडेंड फंड, गे्रच्युटी तथा अन्य सेवा लाभ जो भी मिहिर को सेवानिवृत्ति के उपरंात प्राप्त हुए थे, नेहा व आंचल के विवाह में खर्च हो गए। मिहिर के पास नई नौकरी तलाश करने के अतिरिक्त अन्य चारा न था।
मिहिर को निजी व्यापारिक प्रतिष्ठान में नौकरी मिल भी गई, उसने कुछ राहत की सांस ली। बेटे से मिले जख्मों को वह भूल जाना चाहता था। वैदेही होती तो सब संभाल लेती। वैभव के अलगाव का दु:ख न होता मगर वैदेही की अनुपस्थिति में एकाकी रहना ही मिहिर के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया। रात को व्यापारिक प्रतिष्ठान को बंद करने की जिम्मेदारी मिहिर की ही थी। दिनभर मालिकों की जी-हुजूरी में एक टांग पर खड़े रहना जैसे मिहिर की नियति बन चुका था। तिस पर बाजार का काम, तकादा वसूलने की जिम्मेदारी भी मिहिर पर थी।
मिहिर बखूबी समझ चुका था कि लाला की नौकरी करना आसान नहीं है, दस रुपए का काम करो, तब बदले में दो रुपट्टी ही हथेली पर धरे जाते हैं फिर भी खुश था, कम से कम दिन तो सही सलामत कट जाता था। चाट के साथ तीन रोटियां खाने से मिहिर की उदरपूर्ति नहीं हुई, वह किचिन में घुसा। खाली डिब्बों में कुछ झांककर लौट आया, वैदेही थी तो भोजन के बाद कुछ मिष्ठान अवश्य खिलाती थी, भले ही पेठे की मिठाई हो या बेसन का लड्डू। वह समझती थी कि भोजन के बाद कुछ न कुछ मीठा अवश्य खिलाना चाहिए किंतु वैदेही तो थी नहीं, सिर्फ भ्रम था कि किसी न किसी डिब्बे में मिठाई का कोई टुकड़ा पड़ा हो।
मिहिर भन्नाया। फिर बैठक में आकर बैठ गया, विचार मग्न-'क्या इसी का नाम जीवन है, कुछ समय घौसले में रहो और फुर्र से अपने आत्मीयों को उड़ते देखते रहो।‘
उसे कोई उत्तर नहीं सूझा, फिर विचारा-'वैदेही ने इतनी जल्दी मेरा साथ क्यों छोड़ दिया। अपनी फूल-सी बेटियों का विवाह रचाए बिना वह क्यों चली गई। गृहस्थी से ऐसे समय उसने मुंह मोड़ लिया, जब सभी को उसकी जरूरत थी... और अब जब मेरी काया क्षीण होती जा रही है, मुझे सहारे की आवश्यकता है, तब वह मेरे साथ नहीं। परमात्मा तुझ पर भरोसा कैसे करूं। तुझे दु:ख हरता क्यों मानूं जब तूने मेरी झोली में दु:खों का पहाड़ डाल दिया है, तू तो दु:खदाता हुआ दु:खहरता नहीं।‘
गहरे विषाद में डूब गया मिहिर- बुढ़ापे का सहारा समझा था वैभव को, विचारता था कि कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होगा मगर किस कसूर की सजा दी मुझे। मैंने कोई अपेक्षा नहीं की थी, उसका मेरे साथ खड़ा होना भर काफी था, फिर..., एक बारगी मन किया कि सल्फास खाकर सो जाए। अब उसके होने या न होने से किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता, दोनों बेटियों की शादी करके वह गंगा नहा चुका है। आगे वे जिस हाल में भी रहें उनका नसीब है... जितना वह कर सकता था उसने कर दिया, अब उसके वश में कुछ भी नहीं फिर उसकी आंखें चमकी- जीते जी मौत को गले लगाने का विचार भी कायरता है... देह किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए मिली है। परमात्मा की चाह को स्वीकार किए रहना ही व्यक्ति का कत्र्तव्य है। जब तक तन में प्राण हैं, तब तक जूझना ही है, रहना ही है चाहे जिस हाल में रहा जाए।
विचारों के झंझवात में कब नींद आई पता न चला। अगली सुबह आंख देर से खुली। घड़ी पर नजर डाली तो आठ बज चुके थे और नौ बजे सेठ जी की दुकान खोलनी है... खाना बनाने का समय ही नहीं रह गया है... फिर। मिहिर जैसे उधेड़बुन में लग गया, शीघ्रता से उसने बिस्तर छोड़ा, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हुआ और ताला लगाकर भूखे पेट ही व्यापारिक प्रतिष्ठान की ओर चल दिया।
रास्ते भर अपनी दिनचर्या बुनता चला गया कि दिन में जैसे-तैसे पेट भरेगा। शाम को किसी पवित्र भोजनालय से आठ 'रोटी बंधवाकर ले आएगा।
चार रात के भोजन में चाय के साथ खा लेगा और चार अगली सुबह के लिए रख लेगा। गोया सिर्फ पेट भरने तक ही मिहिर का चिंतन सिमट गया हो। (विनायक फीचर्स)

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