संसार इक जाल - सुनील गुप्ता
है संसार
इक घोर मायाजाल
जिसमें भटक रहे हम सारे !
कैसे निकल आएं इससे बाहर.....,
है ये समझ के पार विकट प्यारे !!1!!
है अँधियारा
फैला सघन चहुँ ओर
फिर रहे यहाँ से वहाँ मारे-मारे !
और ढूंढ़ नहीं पा रहे हैं कोई छोर.....,
नित उलझते ही जा रहे इसमें सारे !!2!!
कहें किससे
मन व्यथा अपनी
हैं परेशान सभी इसमें यहाँ पर !
कोई दुःखड़ा सुना देता रोते-रोते.......,
तो, कोई रह जाता अपना मन मारकर !!3!!
है नहीं
आसान जीना यहाँ पर
पग-पग पे खड़े हैं संकट हज़ार !
एक समस्या दूर होती नहीं कि......,
दूजी तुरत-फुरत आन पडती जान पर !!4!!
बहुत संभल कर
चलते हैं यहाँ पर
फिर भी गिर पड़ते हैं फ़िसल इस जाल में !
है निकलना नहीं कतई आसान इससे....,
नित्य फँसते ही जा रहे इस मोहजाल में !!5!!
दिन रात
सोचते रहते यहाँ पर
कि, कोई तो रास्ता दिखलाएगा अवश्य !
ताकि निकल बाहर आ सकें इस जाल से.....,
और कर पाएं हासिल सभी जीवन के ध्येय !!6!!
तोड़के तमसावृत
मोहमाया का जाल
बढ़ते चलें ज्ञान प्रकाश की ओर !
और भजते रहें सदैव श्रीहरि के भजन......,
तो, दिखेगा अवश्य जाल से बाहर आने का छोर !!7!!
-सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान