निज चंदा की चांदनी में - सविता सिंह

 
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एक ढलती शाम, आईना को किया साफ, 
उसने कहा देर से ही सही, आ गई पास। 
आई हो अब, जब घिर आई है यामिनी, 
फिर भी हो रोशन है जैसे कि दामिनी।
क्यों इतना है तेरा आकुल मन, 
आ बैठ मेरे पास क्षण दो क्षण।
कह दे कुछ सुन ले मन की बात, 
मत छुपा अपने जज्बात।
परिधि से निकल अब तू बाहर, 
तृषा को अपनी बुझा भर भर गागर।
लगाती थी कभी तुम मोटे मोटे काजल, 
याद है कितने थे सारे तेरे कायल ।
अब क्या हुआ जो तू  हुई गामिनी, 
निज विधु की तो तू ही है चांदनी।
कितने भी हो रात घनेरे, 
चांदनी तू ही तो है बिखेरे।
बरस जा तू तृषित धरा पे सावन की तरह, 
बिखर जा तू धरा में मोती की तरह।
टप टप बिखरेंगे जब मोती, 
मानो ऐसे जैसे कि तू हंस पड़ी।
आरसी में देखा जब खुद को, 
ढूँढ लिया अपने वजूद को।
आ गई फिर वही मुस्कान, 
जिससे अब तक थी अनजान।
मृण्मई नैनो में डाला काजल ,
लहरा गया फिर मेरा आँचल।
जैसे की कैद पंछी को, 
मिल गया उन्मुक्त बादल।
- सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर, झारखंड   

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