निश्छल राजनीति के प्रतीक हैं श्रीराम - विद्या निवास मिश्र

 
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utkarshexpress.com - राम के जन्म के आसपास राम के बारे में सोचते समय अजीब परेशानी होती है। राम की भूमिका में अपने को ढालने की बात सोचना बहुत ही असंभव लगता है। राम का स्वभाव है, रिश्ते-नाते निभाना, अपने को निज और पर के बीच अंतर को कम करने के द्वंद्व में पिसते रहना और लोक के लिए बस केवल एक हल्की मुस्कान चेहरे पर बनाए रखना, जिससे कि लोक उस प्रसन्नता का प्रसाद लेता रहे। राम को अपना दुख कहने के लिए कहीं भी कोई बस्ती नहीं मिलती। गांव की हो या शहर की, उन्हें जंगल ही  मिलता है, जहां राम अपने मन की बात कर सकते हैं। इतना आत्मसंयम और इतनी भीतरी विहृलता कैसे निभाते होंगे राम।  उन्होंने बराबर अपने को कटघरे में पाया। ताड़का वध पर आक्षेप, शूर्पणखा के अपमान पर आक्षेप, बालि वध पर आक्षेप, अग्नि परीक्षा पर आक्षेप, फिर सीता निर्वासन पर आक्षेप, किसी का राम ने उत्तर नहीं दिया सफाई नहीं दी।
राम के मर्म का भवभूति ने समझा और राम से कहलाया 'दु:ख संवेदनाये व रामे चैतन्यमर्पितमÓ, राम को चैतन्य मिला ही इसीलिए है कि वे दु:ख का पूरी तरह अनुभव करें। व्यथित होकर सीता के चरित्र के प्रति विश्वस्त होने के कारण जिस लोक के अपमान से राम ने सीता को गंगातीर पर भिजवाने की व्यवस्था की, उस लोक ने राम के त्याग का कोई महत्व नहीं समझा। यह लोक राम के निजी जीवन को कुछ महत्व नहीं देता। तभी तो उत्तर रामचरित में जब पंचवटी की वनदेवता और सीता की सखी वासंती राम से जवाब मांगती है, तुमने सीता का निर्वासन क्यों किया, तो राम का उत्तर है- लोक को सीता का रहना सहन नहीं था। वासंती ने फिर पूछा, इसका कारण क्या है? राम उत्तर देते हैं, लोग ही जानें क्यों उन्हें सीता की अयोध्या में उपस्थिति अभिमत नहीं थी। वहीं राम पंचवटी में बारह वर्षों तक छाती पर सीता-निर्वासन की शिला ढोते रहने के बाद यकायक उसे उस सहज विश्वासी मन में नीचे उतार देते हैं और फूट पड़ते हैं-
'देव्या शून्यस्य जगतो द्वादश: परिवत्सर:।
प्रालीनमिव नामापि न च रामो न जीवितं॥Ó
देवी से सूनी हुई इस दुनिया के बारह वर्ष होने जा रहे हैं। देवी का नाम भी कहीं कोई नहीं लेता और राम अभी भी जीवित न रह सके, यह नहीं हुआ। राम यह सब सहते हुए भी जी रहे हैं।
राम को लगा कि यह लोक मर्यादा का ध्यान कितना महंगा पड़ा, उसने मुझे भीतर से तोड़ दिया। राम, राम का शव ढो रहा है। बारह वर्ष तक मैंने उसांस तक नहीं भरी और लोगों ने कोई परिताप नहीं किया। कैसा आत्मघाती निर्णय मैंने लिया। लोक साहित्य ने तो राम के दु:ख को अधिक मुखर रूप में प्रस्तुत किया है। पुत्र जन्म का संदेश लोक साहित्य लक्ष्मण तक पहुंचाता है, राम को छोड़ देता है। लव-कुश राम के प्रश्न पर किसके बच्चे हो, उत्तर यही देते हैं, मां जानकी हैं, नाना जनक हैं, दादा दशरथ हैं। चाचा लक्ष्मण हैं, पिता का नाम हम नहीं जानते। यह उत्तर राम के ऊपर कितनी मार्मिक चोट है। राम सीता को मनाने वाल्मीकि के आश्रम में जाते हैं, तो सीता कहती हैं- ऐसे पुरुष का मैं मुख भी नहीं देखूंगी- जिसने मुझे गर्भवती स्थिति में घर से बाहर निकाल दिया। वही सीता बार-बार यही कहती हैं, मेरा जब अब जन्म हो मैं राम की ही रहूं। कैसा दारुण एकनिष्ठ प्यार है।
पूरा जीवन राम का बीता दूसरों का दु:ख ढोने में, दूसरों का दु:ख दूर करने में, छोटों को आदर देने में, छोटों का मन रखने में। राम ने भरत का मान रखने के लिए चौदह वर्ष बाद राज्य स्वीकारा अन्यथा वन में राम परम प्रसन्न थे। राम तो छल प्रपंच से दूर रहना ही पसंद करते थे। इसीलिए जब अयोध्या का राज्य संभाला, तो वे निश्छल राजनीति को ही प्रश्रय देते रहे, भले ही उन्हें एक अयोध्यावासी के छल प्रपंच का शिकार होना पड़ा। सहज सीधे लोगों को 'अटपटी प्रेम लटपटीÓ वाणी राम के लिए जितनी भी प्रिय भी थी, उतना अयोध्या का नागरिक शिष्टाचार प्रिय नहीं था। ऐसे सीधे-सादे सदस्य जनों के बीच रमने वाले राम राजा होते हैं। यह राम की विडंबना नहीं तो क्या है? पर सामान्य जन है कि देश काल का अंतराल नहीं मानता, वह अभी भी राम को ही राजा मानता है, दूसरी सत्ताओं को कोई सत्ता ही नहीं मानता।
राम सामान्य लोगों की विहृलता में कितने ही परेशान हुए हों, विशिष्ट जनों की इस चेष्टा पर खुलकर हंसे होंगे, धन्य हैं बुद्धि के ये विधान जो हवा की रस्सी बुन रहे हैं और उस रस्सी से सोचते हैं राम फंस जाएंगे। अरे भाई, राम को फंसाना ही है तो स्नेह की डोर में बांध दो। मुझे बंधा हुआ मान लो। तुम मुझसे लेखा-जोखा जितना लेना चाहो ले लो। सारे संसार की विपदा की जड़ मैं हूं। मैं जवाब दूंगा। मैं कैसे सबकी विपदा की जड़ हूं, मैं सबमें हूं, सबकी विपत्ति मेरी विपत्ति है, पर एक बार मुझे इस प्रकार बांध के देखो। देखो तुम्हारे जितने स्नेह बंधन हैं, वे मीठे होते कि नहीं, तुम्हारे जितने भी आक्रामक आक्षेप हैं, वे उलाहने में परिवर्तित हो जाते हैं या नहीं।
कभी तुमने अपने नए शिशु में मुझे देखा है? कभी अपने बड़े भाई में मेरी छवि देखी है? देखते तो लगता राम कोई अजनबी नहीं, बिल्कुल हम तुम जैसे साधारण सीधे सादे मनुष्य हैं बाहें कुछ अधिक लंबी हैं, घुटनों को छूती हुई। रीढ़ की हड्डी कुछ अधिक सीधी है, शरीर तना हुआ है, गोरे नहीं है, अधिकांश भारतीयों के रंग में मिले 'सांवरे सलोनेÓ हैं। राम कोई जादू की पिटारी नहीं रखते। राम कोई औलिया फकीर नहीं। उनकी झोली में कोई भभूत नहीं। बिल्कुल घरबारी आदमी हैं। हां, तुम स्वयं घरबारी नहीं हो तो कोई बात नहीं। राम को समझने के लिए घर को समझना जरूरी है। जिसको घर से ममत्व होता है, वह राम को समझता है और जिसके लिए सर्वत्र घर जैसा लगता है, वह राम को समझ पाता है, अनुभव कर पाता है। जिसका मन घर की विशालता से भरता है उसी को राम भरते हैं। जो घर वापस लौटना चाहता है, वही राम के पास वापस लौटना चाहता है।
राम का होना इतना आसान है, इसी से इतना मुश्किल है। कारण स्पष्ट है। हम दूसरों का ही छल देखते हैं, अपना नहीं। राम कहीं भी छल नहीं देखते, देखते तो कैकेयी को भी अयोध्या लौटने पर इतने स्नेह से न अपनाते। उन्हें इसकी चिंता नहीं हुई कि भरत राम के ऊपर आक्रमण करेंगे। हम हैं कि कहीं हमें कोई विश्वसनीय दिखाई नहीं पड़ता। अविश्वास में ही हम घुटते रहते हैं। अब कोई कहे राम ने सीता पर क्यों अविश्वास किया, तो उसे पहले पूछना चाहिए कि राम सीता एक-दूसरे को जितना जानते हैं, उतना कौन जानता है। वहां प्यार के सिवा किसी अन्य भाव का कोई स्थान नहीं। राम सीता को महनीय बनाना चाहते हैं। वे सीता पर अविश्वास करने के पहले अपने घर पर अविश्वास करते। सीता के सामथ्र्य पर, सीता के एकनिष्ठ प्यार पर, राम को अटूट विश्वास है। वही विश्वास उनकी वास्तविक शक्ति है। राम साकार विश्वास हैं, इसलिए सामान्य जन को राम पर इतना विश्वास है, इतना भरोसा है। राम का होने का अर्थ 
जीवन में विश्वासी होना है, राम होने का अर्थ सहज विश्वासी होना है। (विनायक फीचर्स)

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