सूरमा - भूपेश प्रताप सिंह

 
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पंथ के हर कंटकों को पार करते सूरमा 
अन्न-जल को त्याग कर पग बढ़ाते सूरमा, 
विघ्न हों चाहे सहस्रों कभी घबराते नहीं  
शीत वर्षा ताप सह सुखधाम रचते सूरमा। 

मरु धरा की रेत तपती फूल मुस्काते नहीं 
सूरमा रुकते नहीं वे कभी सुस्ताते नहीं, 
स्वयं की ही शक्ति पर उनको स्वयं विश्वास है 
हार भी जाएँ अगर तो ज़रा पछताते नहीं । 

रात हो काली घनी सूझता न पंथ हो 
हर दिशा संकट भरी हो महक की न गंध हो, 
घिर चुकी हो साँस जब भी काल के आघात से 
सूरमा तब गुनगुनाते कर्म मानो छंद हो। 

कर्मपथ पर विजय पाना यही उनका धर्म है 
हार कर भी जीत जाना यही उनका मर्म है, 
छोड़कर पदचिह्न अपने त्यागकर हर लाभ को 
भला करते विश्व का यह सूरमा का कर्म है। 
- भूपेश प्रताप सिंह,प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश
 

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