किशोरावस्था जीवन का अतिसंवेदनशील दौर - उषा जैन 'शीरी’
![PIC](https://utkarshexpress.com/static/c1e/client/84522/uploaded/961622ccbb722a1a9a128188cf91abd8.jpg)
utkarshexpress.com - किशोरावस्था जीवन का वह दौर है जब व्यक्तित्व अपना स्वरूप लेना शुरू करता है। किशोरों के सामने संभावनाओं का खुला आसमान होता है। इतना कुछ सीखने के लिए होता है कि चुनाव मुश्किल हो जाता है मन डांवाडोल रहता है। कभी कोई क्षेत्र लुभाता है तो कभी कोई क्षेत्र। चंूकि उनका व्यक्तित्व अभी कोई आकार नहीं ले पाता है उसमें ठहराव नहीं होता है। किशोर जहां किसी बात को लेकर बेहद उत्साहित महसूस करते हैं वहीं जरा सी बात उनका मनोबल तोड़ कर रख देती है। उनका आत्मविश्वास चूकने लगता है। यहां तक कि वे कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं को आमंत्रण दे बैठते हैं जटिल ग्रंथियां पालकर।
मां का प्रभाव -
बच्चों पर पिता से ज्यादा मां का प्रभाव पड़ता है। एक समझदार मां बातों ही बातों में बच्चों को बहुत कुछ सिखा कर उनका सही मार्गदर्शन कर सकती है। दिन प्रतिदिन में लोगों से कैसे डील करें यह मां ही अच्छी तरह बगैर उपदेश दिए समझा सकती है। डॉ. रेणु तनेजा के अनुसार ''मां से मिलने वाला मॉरल सपोर्ट बच्चे के लिए अमूल्य है। जब कभी बच्चा अनिर्णय की स्थिति में होता है तो उसे पूर्ण विश्वास होता है कि मां ऐेसे में सही गाइड साबित होगी।‘
किशोर उम्र के लोग दोस्तों की कंपनी बहुत पसंद करते हैं। इस समय की दोस्ती पक्की और कई बार निर्दोष होती है। दोस्तों का प्रभाव इस समय में अत्यधिक रहता है। अमेरिका में सेटल्ड मनोविशेषज्ञ रानी केसरीवाल कहती हैं कि यह जीवन का एक ट्रांजिशनल पीरिएड है। बच्चे बदलाव के दौर से गुजरने का पे्रशर झेलते हुए अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं। कोई उन पर जरा सी भी विरोधी टिप्पणी कर दे तो वे इस बात को मन से लगा लेते हैं। जब कि टिप्पणी करने वाला पूर्वाग्रही भी हो सकता है ईष्र्या के वशीभूत होकर भी ऐसा कर सकता है। इसलिए जरूरी है कि उसकी मंशा को समझा जाए। तत्पश्चात उस पर उचित समझें तो एक्शन लें या उपेक्षित छोड़ दें।
सारे झगड़े की जड़ मुंह का बोल ही है इसलिए सोच समझ कर बोलने वाले ही सुखी रहते हैं। सच बोलना अच्छी बात है लेकिन सच बोलना हमेशा हितकारी नहीं होता। कई बार सच बोलकर आप अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। जब कि चुप रहने से किसी का भी अनिष्ट नहीं होने वाला। ऐसी जगह गोपनीयता बनाए रखने की कला आपको आनी चाहिए। दूसरों से ऐसी बातें भी न कहें जिससे उनका दिल दुखे। सेडिज्म को अपने व्यवहार में जगह न दें, न किसी पर कमेंट करें। हो सके तो प्रशंसा करें और वह भी दिल खोलकर अपनी ही तारीफ हर समय करते रहना भी अच्छा नहीं।
किशोर वय ऊर्जा से भरपूर होती है इसे प्रॉपर चैनल दें। स्पोर्टस, रचनात्मक कला, म्युजिक, पेंटिग, डांस योग, एरोबिक इत्यादि अपनाकर। टी.वी पर हिंसा से भरपूर प्रोग्राम न देखें न ही हिंसा और अश्लीलता से भरी मूवीज देखें। मनोरंजन के लिए साफ सुथरी पिक्चर देख सकते हैं। आज की हाईटैक लाइफ में किशोरावस्था से ही बच्चों पर कड़ी प्रतिस्पद्र्घा का गहरा तनाव होता है। जिसके चलते उनमें छोटी उम्र से ही डिप्रेशन घिरने लगता है। यह मानसिक स्थिति उन्हें हिंसक बना देती है। अभिभावकों का फर्ज है कि वे बच्चों को इस स्थिति से बचायें। उन्हें स्वस्थ मनोरंजन के लिये प्रेरित करें।
पैसा जीवन में जीने के लिए जरूरी है, कुछ हद तक अहम है लेकिन पैसा ही सब कुछ नहीं। किस तरह इच्छाओं पर काबू पाया जा सकता है। इसकी नींव बचपन से ही पड़ती है। अभिभावकों का फर्ज है बच्चों को ऐसी सीख दें कि पैसे से बढ़कर है परिवार, अपनत्व, स्नेह, प्यार, अच्छे संस्कार। अच्छे संस्कार होने पर ही एक सुखी सफल जीवन की नींव रखी जा सकती है। आज हमारा किशोर वर्ग राह भटक रहा है।
एक समाचार के अनुसार मुंबई के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में एक छात्र की रूपयों के लिए अन्य छात्रों ने गला घोंटकर हत्या कर दी और उसकी प्रेरणा उन्हें कहां से मिली? किसी टिपिकल हिंसक फिल्म से। कमी जरूर कहीं ऐसे बच्चों के पालन पोषण में होती है। मां बाप से संवादहीनता एक बड़ा कारण है। बच्चों के प्रति माता पिता की लापरवाही भी उनके गुमराह होने का कारण बनती है।
हीन भावना से बचें -
अपनी किसी कमी को लेकर मन में हीन भावना न पलने दें। अगर किसी में कोई कमी होती है तो दस खूबियां भी होती हैं। जगत में संपूर्ण कोई नहीं होता।
संपूर्णता काल्पनिक होती है इसे हम जितनी जल्दी स्वीकार लें तो अच्छा होगा। हां, संपूर्ण बनने का प्रयत्न करते रहने पर उसके करीब तो पहुंचा ही जा सकता है। इसी तरह बड़बोलेपन से भी बचा जाए। अपने मुंह से अपनी डींग मारने वालों को कोई पसंद नहीं करता। वह पीठ पीछे ऐसों की लोग हंसी ही उड़ाते हैं। (विनायक फीचर्स)