लउकत नइखे तीर - अनिरुद्ध कुमार

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अंतर मन में, नेह निहारे, नैना छलके नीर।
आकुलता रोजे उफनावे, लहरे लागे पीर।।

चारो ओरी फागुन लहरे, लाली लाल अबीर।
व्याकुलता चौखट से झाँके, मूरत बनल शरीर।।

अनुरागी मनवा झकझोरे, चित लागे गंभीर।
अभागा खातिर सबे माटी, सोंचे बड़ी अधीर।।

उनके बिन सूना लागे जग, कइसन ई तकदीर।
कंगाली सन जीवन जीये, दुनिया देख अमीर।।

फागुन में चइता के लहरा, लहकत छाती चीर।
जोरे लहर उठतबा मन मे, जागल सूतल भीर।।

के जाने कौन ओरि लागी, खींचल कौन लकीर।
रोईं, डहकी जीवन काटी, का होई जागीर।।

विधना काहे बनले बैरी, चित होये ना धीर।
आगे पीछे कुछ ना लउके, कासे बोलीं गीर।।

प्रीत हीन जीवन बा माटी, तनमन रूप फकीर।
भोर साँझ या दुपहरिया में, लउकत नइखे तीर।।
- अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड
 

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