प्यासी चिरई - कर्नल प्रवीण त्रिपाठी

 
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ऋतु बसंत है कब की बीती, अब तो गरमी खासी है।
छाँह ढूँढती उड़ती फिरती, देख चिरैया प्यासी है।

आठ महीने सुख से बीते, कमी न दाना पानी की।
शुरू हुआ गरमी का मौसम, याद आ गई नानी की।
सुखद दिनों की याद समेटे, मन में बहुत उदासी है।
बूंद-बूंद पानी को तरसे, देख चिरैया प्यासी है।।
ऋतु बसंत है कब की बीती,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

ताल पोखरे सूख रहे सब, जल का एक निशान नहीं।
बेहाली में तड़प रही है, ज्यों पंखों में जान नहीं।
सूखे कंठ न चीं-चीं निकले, जो ध्वनि निकले बासी है।
कोई पुरसाहाल नहीं है, देख चिरैया प्यासी है।।
ऋतु बसंत है कब की बीती,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

मानव का कर्तव्य आज यह, उसका तारणहार बने।
दाना-पानी जगह-जगह रख, उसका पालनहार बने।
ध्यान रखें मिलकर हम इसका, जो इसी धरा की वासी है।
नहीं उठे यह बात कभी फिर, देख चिरैया प्यासी है।।
ऋतु बसंत है कब की बीती,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

खत्म हो गए सब सुख के दिन, बाहर गरमी खासी है।
बँधे परिंडों से जल पीकर, आती नई उजासी है।।
हो कृतज्ञ हमसे वह बोले, नहीं चिरैया प्यासी है।।
ऋतु बसंत है कब की बीती,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
- कर्नल प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, उत्तर प्रदेश 
 

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