जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के संघर्षों के तेईस साल - डॉ. राष्ट्र बन्धु

 
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Utkarshexpress.com - सन् 686 में शंकराचार्य प्रकट हुए। उनकी माता का नाम विशिष्टा और पिता का नाम शिवगुरु था। दंपति ने शिवाराधना से पुत्र प्राप्ति का वरदान पाया तो शंकर को कुछ वर्षों के लिए अवतरित होना पड़ा। केरल के एक साधारण से ग्राम कालड़ी में जन्म लेते ही उन्होंने गृह त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया। माता विशिष्टा ने एक प्रतिज्ञा कराई कि जब उनका अंतिम समय होगा, तब संन्यासी के नियम तोडक़र पुत्र शंकर आयेगा और उनका अंतिम संस्कार करेगा। बालक ने संन्यास की स्वीकृति जैसे एक बड़े कार्य के लिए इतनी छोटी छूट को स्वीकार कर लिया।
यात्रा पथ में शंकर उत्तर दिशा में नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर आए और गुरु गोविंदपाद ने शंकर की संभावनाओं से प्रभावित होकर गुरु दीक्षा दी। शंकर को उन्होंने वैदिक धर्म के प्रचार का निर्देश दिया।
शृंगेरी मठ में आचार्य शंकर को ध्यान करते समय पता चला कि उनकी विधवा मां का अंतिम समय निकट है और मां उनके आगमन की प्रतीक्षा करती है। अपने वचनपालन में शंकर कालड़ी अविलंब पहुंच गए। सामान्य व्यक्तियों के लिए वाहनों का अभाव था, दूरी थी, लेकिन योगी अपनी असामान्य शक्तियों के रहते यात्रा करते थे।
पुत्र की सहायता से माता ने शंकर के दर्शन किये फिर विष्णु के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। आचार्य शंकर ने मां की यह अभिलाषा भी पूरी की। मां ने संतोष के साथ अंतिम सांस ली।
उनके कुटुम्ब का कोई व्यक्ति अर्थी उठाने नहीं आया। नंबूदरीपाद ब्राह्मण, संन्यासी द्वारा अंतिम संस्कार किये जाने को वर्जित मानते थे। शंकराचार्य के संन्यास लेने के कारण, वे सब इतने कठोर बन गए कि उनकी दिवंगत माता के प्रति सहज करुणा तक नहीं जागी। सामान्य शिष्टाचार की औपचारिकता भी उन्होंने नहीं दिखाई। परंपरा तोडऩे की सजा कितनी अमानुषिक थी कि जाति भेद के कारण दूसरे भी नहीं आए। ऐसे लोगों पर भी स्वामी शंकराचार्य ने कोई आरोप नहीं लगाया, आक्रोश नहीं किया, कुटुंबियों की कठोरता के आगे झुके नहीं, सहायता के लिए गिड़गिड़ाये नहीं।
सच्चे संन्यासी को कोई मोह नहीं होता। उसे किसी के किसी भी संस्कार से कोई मतलब नहीं रहता, लेकिन इस परिपाटी से उन्होंने अपने को बंधनमुक्त किया। अन्याय का विरोध करने के लिए इसकी आवश्यकता थी। मां का अंतिम संस्कार करने का दायित्व उन्होंने निभाया।
अधिक दूर तक अकेले शव उठाकर ले जाने की विवशता में उन्होंने अपनी मां के शव के तीन टुकड़े किये, एक टुकड़ा उठाकर ले गए। श्मशान में जलाकर फिर लौटे। लोग तमाशा देखते रहे।
शंकराचार्य ने दूसरा टुकड़ा उठाया और उसे भी जला दिया। तीसरे टुकड़े को भी जला आए। उनकी धीरता-गंभीरता की कड़ी परीक्षा पूरी हो गई। वे खरे साबित हुए।
बाद में लोगों ने शंकराचार्य की कीर्ति के आगे घुटने टेक दिये। उन्होंने पश्चाताप किया, कठोरता के लिए पछताए और इसे हमेशा याद रखने के लिए उन्होंने प्रत्येक लाश पर तीन लकीरें खींचने की प्रथा चलाई। शंकराचार्य की दृढ़ता ने सबको पानी-पानी कर दिया।
ओम की आकृति वाले ओंकारेश्वर (म.प्र.) के शैल शिखर पर नर्मदा के किनारे गोविंदपाद योगी के दर्शन किये। वर्षा ऋतु में गोविन्दपाद जी की कुटिया को बचाने के उपक्रम में उन्होंने अपना कमण्डल रख दिया। पानी इस कमण्डल के आगे नहीं गया। गुरु गोविन्दपाद जी निश्चिन्त थे। शंकर ने जल पर भी शासन किया, उस पर अपना आदेश चलाया।
गुरुगोविंदपाद जी ने स्वामी शंकराचार्य को सनातन धर्म प्रचार का कार्य सौंपा। शंकराचार्य ने चार दिशाओं में चार चार मठ स्थापित किये। 1. द्वारिका में विश्वरूप सुरेश्वर शारदा मठ, सामवेद, 2. पुरी में पद्मपाद, गोवर्धन ऋग्वेद, 3. ज्योतिर्धाम में लोटक, ज्योतिर्मठ, अथर्ववेद और 4. शृंगेरी में हस्तामलक। उनके अनुसार जो लोग ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करना चाहेंगे उनके लिए शारदामठ स्वरूप गोवर्धनमठ प्रकाश, ज्योतिर्मय आनन्द और शृंगेरी मठ चैतन्य की उपाधि प्रदान करेगा।
मंडन मिश्र का निवास स्थान कुछ लोग मिथिला में बताते हैं तो कुछ महेश्वर (म.प्र.) में। उनके घर पर पालतू तोता, मैना संस्कृत में संभाषण करते बताए जाते थे। मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करके उनको पराजित करके आचार्य शंकर ने उनकी पत्नी भारती से शास्त्रार्थ किया और उनको भी हरा दिया। उन दोनों ने आचार्य शंकर का साथ दिया और इन सबके शास्त्रार्थ से जैन, बौद्ध, साधु परास्त हुए। उस समय सनातन धर्म की दिग्विजय हुई। वेदों और ईश्वर के प्रति लोगों की आस्था और निष्ठा बढ़ी।
आचार्य शंकर ने मात्र 23 वर्ष का जीवन जिया और अद्भुत कार्य किए। (विभूति फीचर्स)

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