वसुधैव कुटुंबकम् का मूल सनातन संस्कृति - डॉ जयप्रकाश तिवारी

 
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Utkarshexpress.com sudhir shriwastav - "वसुधैव कुटुंबकम्" या "विश्वबंधुत्व भाव" एक ऐसा तरल-सरल और सम्मोहक मानवीय भाव है जो हृदय को हृदय से, मन को मन से, और संवेदी चेतना को मूल परम चैतन्य से जोड़ता है। विश्व में अनेक संस्कृतियां और सभ्यताएं है जो अपने को श्रेष्ठ मानती हैं और  तथाकथित "भाई चारा" अथवा "गंगा जमुनी तहजीब" के नाम पर "विश्वबंधुत्व भाव" के सर्जक, पोषक, उन्नायक होने का दावा और दिखावा करती हैं, ढिंढोरा पीटती हुए इस धरा पर विश्वबन्धुत्व भाव के प्रणेता के रूप में स्थापित करने का असफल प्रयास करती हैं। किंतु वास्तविकता की धरातल पर वे पारिवारिक, सामाजिक, राजनीति की 'संकीर्ण भातृत्व भाव' से ऊपर विशुद्ध मानवीय भाव, सर्वचैतन्य भाव तक उठ ही नहीं पाईं और किसी न किसी कुनबे, संगठन, अपनी सीमित, संकीर्ण मान्यताओं तक ही सिमटकर, सिकुड़कर रह गई हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनकी संस्कृति में, दर्शन में, धर्मग्रंथों में इसकी अवधारणा ही नहीं है। इसलिए अपनी सीमित परिधि के बाहर उनकी सोच अपनी विचारधारा से असहमत होने वालों के प्रति असंवेदनशील है। ये तथाकथिक बंधुत्ववादी सभ्यतायें विकास के साथ-साथ न केवल उग्र से उग्रतर होती रही है, अपितु अपनी श्रेष्ठता और वर्चस्वता की स्थापना के लिए दूसरी अन्य  विचारधारा को "स्व" और "स्वजन" न मानते हुए उन्हें "अन्य", "अन्यजन" स्वीकारती है और क्रूरता, बलपूर्वक इस "अन्य" का अस्तित्व ही धरा से मिटा देना चाहती हैं। वहां दूर दूर तक 'सह-अस्तित्व' जैसी कोई लचीली संकल्पना भी नहीं है। अन्य को सेवक, अनुचर, कनिष्ठ और न्यून श्रेणी का मानते हुए ऐसी संस्कृति और सभ्यताओं को अनेक बार मानव से दानव, अत्याचारी, क्रूर, निर्दयी, संहारक बनते हुए भी देखा गया है। इसी चिंतनभाव, दृष्टिभाव का प्रतिफल पारिवारिक-सामाजिक वैमनस्यता, राजनीतिक प्रतिद्वंदिता और राज्यों को हड़पने की कुत्सित नीति के रूप में समदर्शिता, समत्व के नाम पर यत्र-यत्र-सर्वत्र किसी न किसी रूप में आज भी विश्वपटल पर न्यूनाधिक रूप में दृष्टव्य है। क्या ऐसी ओछी सोच और इस प्रकार की मान्यताओं के संवाहक विचारधारा को विश्वबंधुत्व का प्रणेता या पोषक किसी भी दशा में स्वीकार किया जा सकता है? इसका स्पष्ट उत्तर है - "नहीं"। अब भले ही यह विचारधारा स्वयं को चाहे जितना भी श्रेष्ठ, कितना भी विश्वबंधुत्ववादी घोषित क्यों न करे, इस प्रयास के पश्चात भी इसका उत्तर निश्चित रूप से नकारात्मक ही होगा; क्योंकि सनातन संस्कृति के अतिरिक्त विश्व के किसी भी संस्कृति में न तो ऐसा भाव है, न ही ऐसी कोई स्पष्ट घोषणा।
अब सहज प्रश्न है, विश्वबन्धुत्व भावना, बसुधैव कुटुंबकम की स्थापना के लिए अनिवार्यता क्या है? या क्या होना चाहिए? किसी भी उत्तर के लिए प्रारम्भ इकाई से किया जाता है; समाजिक दृष्टि से राष्ट्र की इकाई समाज, समाज की इकाई परिवार और परिवार की इकाई दंपति (पति-पत्नी युग्म) है। यदि 'आदि-दंपति' की उत्पत्ति का स्रोत एक से अधिक, दो या दो से अधिक भिन्न सत्ता या भिन्न स्थान हैं तो उनकी संतति भी किसी एक के प्रति निष्ठावान होकर आपस में अधिक सहिष्णु नहीं रह पायेगी। अरे, संतति को छोड़ें 'दंपति' में भी श्रेष्ठता-कनिष्ठता, उत्तम-अधम का भेद और कुत्सित भाव सतत बना ही रहेगा। पाश्चात्य संस्कृति मे, उनके दर्शन-चिंतन मे "स्त्री" जाति को 'आदिपुरुष' की पसली से उत्पन्न होना बताया गया है। बहुचर्चित पाश्चात्य विचारक 'सिमोन द वाउवा' ने "स्त्री" को जांघ की पसली से उत्पन्न कहा है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "द सेकंड सेक्स" (हिंदी रूपांतरण "स्त्री: उपेक्षिता" अनुवादक प्रभा खेतान) में सिमोन ने बहुत ही विस्तार से प्रचलित संस्कृतियों की गहन पड़ताल की है और बड़े ही तार्किक और दार्शनिक विधि से इस बात को सूक्ष्मता से विश्लेषित भी किया है तथा निष्कर्ष रूप में बताया है कि इसी पसली से स्त्री जाति के उत्पन्न होने की संकल्पना के कारण को उन संस्कृतियों में पुरुष और स्त्री में असमानता का गहरा भाव है। वहां पुरुष को श्रेष्ठ (उत्तम) और स्त्री को हीन (अधम) के रूप में परिगणित किया गया है। उस पसली के अलग होने से पुरुष काम नहीं हुआ किंतु "स्त्री" छुड़ा अंश, दीन-हीन बनी रही। पुरुष के अंतर्मन में वही 'श्रेष्ठता' उर स्त्री मन में 'हीनता' का भाव बना रहा। सिमोन ने इस पुस्तक में सिद्ध किया है कि 'स्त्री' को इसी कारण पुरुष से हीन और निम्न कोटि का माना जाता है। इन पाश्चात्य दार्शनिक चिंतकों ने स्त्री जाति को "अन्या" घोषित कर दिया है। फलस्वरूप "दंपति इकाई" रूप में ही जब समता, समानता, बराबरी का भाव पूरी तरह खंडित-विखंडित हो जाता है तो इन संस्कृतियों, सभ्यताओं में विश्वबंधुत्व भाव की कल्पना, स्वीकार्यता की बात एकदम खोखली, थोथी, दिखावा, आडंबर, छल और धोखा सा प्रतीत होता है। यही कारण है कि स्त्री स्वतंत्रता, समानता, अधिकार की मांग के आधार पर एक उग्र आंदोलन "नारी सशक्तिकरण" के नाम पर पश्चिमी देशों में प्रारम्भ हुआ और सिमोन द वाउवा उस आंदोलन की प्रथम अंतरराष्ट्रीय चेयर पर्सन चयनित हुई थी।
साम्यता और "अन्या" के साथ ही "अनन्या" के निर्धारण, विश्वबंधुत्व भाव के परीक्षण के लिए केवल "सृष्टि विज्ञान", 'कोस्मोलोजिकल स्टडी' से ही "विश्वबंधुत्व भाव" / "अन्या भाव" की संकल्पना का यथोचित समाधान हो सकता है। सनातन संस्कृति और उपनिषदों में इस "विश्वबंधुत्व भाव" की स्थापना के लिए अनेक प्रकार से, सृष्टि विज्ञान के माध्यम से जन सामान्य को समझने और समझाने के अनेक स्तुत्य प्रयास, मॉडल, संकल्पनाएं दिखती हैं। सनातन संस्कृति में "आदि पुरुष" को ही "पुरुष" या "आत्म तत्त्व" कहा गया है। पूरे ब्रह्मांड में यही आत्मतत्व सूक्ष्म से सूक्ष्मतम और विराट से विराटतम रूप में सर्वत्र परिव्यप्त है। सनातन संस्कृति की सृष्टि विज्ञान को उपनिषदों की दृष्टि में हम इस प्रकार देख सकते हैं -
मुण्डक उपनिषद -  मूल तत्व निर्गुण, निराकार, अव्यक्त है। जो अव्यक्त, अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण, अश्रोत्र, अपाणि, अपाद सुसूक्ष्म है। वही तत्त्व सृष्टि सृजन प्रक्रिया में अव्यक्त से व्यक्त, निर्गुण-निराकर से ही उसी प्रकार सगुण-साकार रूप में व्यक्त होता है, जैसे कोई मकड़ी स्वयं अपने अंतः से ही जाले का निर्माण, पोषण और अन्ततः अपने में ही लय कर लेती है - "यथौर्णनाभि: सृजते गृह्यते" ..(१.१.७)"। निर्मित सभी वस्तुओं, पदार्थों, नाम - रूपों में वह स्वयं ही समान रूप से परिव्याप्त है। यदि सृष्टि क्रम की बात करें तो इसी अरूपम, अदृश्य तत्त्व से सर्वप्रथम प्राण (ऊर्जा), मन, सभी इंद्रियां, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी (पञ्च महाभूत) की उत्पत्ति हुई  - "एतस्मात जायते प्राणो मन: सर्वेंद्रियाणि च। खं वायु: ज्योतिराप: पृथिवी विश्वस्य धारिणी" (२.१.३)। अर्थात सभी स्त्री, पुरुष, जड़, चेतन एक ही मूल तत्त्व से प्रादुर्भूत हैं, इनमे न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई श्रेष्ठ है, न कोई हीन ...।
प्रश्नोपनिषद - इस उपनिषद के प्रथम प्रश्न मे शिष्य कबंधी ने महर्षि पिप्पलाद से प्रश्न पूछा था - "भगवन कुतो ह वा इमा: प्रजा: प्रजायंत इति" (१.३)। भगवन इस सृष्टि (प्रजा) का कारण कौन है? महर्षि ने उत्तर दिया  - "... प्रजाकामो वै प्रजापति: स तपोSतप्यत स तपस्त तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पाद्यते। रयि च प्राण चेत्येतौ मे बहुधा प्रजा: करिष्य इति" (१.४)। प्रजापति ने तप क्रिया के द्वारा एक मिथुन (जोड़ा, युग्म) की उत्पति की। उसी 'युग्म' से यह समस्त सृष्टि उद्भूत हुई है। मंत्र (१.५) में इसे और भी स्पष्ट किया है - "आदित्यो ह वै प्राणो रयिरेव चंद्रमा रयिर्वा एतत सर्वम यन्मूर्तम चामूर्तम च"  ...(१.५)"। यह प्राण ही सूर्य (ऊर्जा) है तथा रयि ही चंद्रमा (पदार्थ) है जिससे मूर्त और अमूर्त सभी सृष्टि की संरचना हुई है। यदि इसे विज्ञान की शब्दावली में कहें तो यह सृष्टि और कुछ नहीं ऊर्जा और पदार्थ का ही संयोग और परिणाम है। ध्यातव्य है कि इस युग्म (जोड़े) के अवयव एक ही तत्त्व के उत्पाद हैं, इनमे न तो कोई श्रेष्ठ है न ही कोई अधम। दोनों ही एक ही तत्त्व के दो समान अवयव हैं, न कोई बड़ा, न कोई छोटा। अर्थात पुरुष और स्त्री दोनों ही एक समान, बराबर-बराबर।
मांडूक्योपनिषद - इसके अनुसार सबकुछ तत्त्व ही तत्त्व है, ब्रह्म ही सबकुछ है - "सर्वम हि एतद ब्रह्मायमात्मा ..." (२)। पुरुष हो या स्त्री दोनों ही तत्त्व रूप से ब्रह्म ही हैं, इनमे आपस में कोई भी भेद नहीं है।
वृहदारण्यक उपनिषद - इस उपनिषद के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में दिव्य पुरुष ने अपने ही शरीर का दो भाग किया, उससे पति और पत्नी का युग्म हुआ; जैसे मटर दाने के दो भाग, दो दालें, अर्द्धनारीश्वर रूप यह उदाहरण बताता है कि एक के बिना दूसरा अधूरा है, अपूर्ण है। विवाह संस्कार इसे पूर्णता प्रदान करता है। यह बहुत बड़ा अंतर है पाश्चात्य और भारतीय चिंतन में। महर्षि याज्ञवल्क्य कहते है - *स हैतानास यथा स्त्री पुमानसौ .... द्वेधा पातयत्तत: पतिश्च पत्नी चाभवताम....." * (१.४.३)।

ऐतरेय उपनिषद - इस उपनिषद के अनुसार - "ॐ आत्मा वा इदमेक इवाग्र आसीत। नान्यकिंचन मिषत। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति"। (१.१.१)। सृष्टि के प्रारम्भ में एक अव्यक्त परमतत्त्व ही था, उसने अपने इक्षण से, संकल्प से, तप से इस सृष्टि का सृजन किया। इस सृष्टि में स्त्री हो या पुरुष; दोनों ही एक समान, न कोई छोटा, न कोई बड़ा।
तैत्तीरियोपनिषद - इस उपनिषद के अनुसार भी उसी एक परमतत्त्व ने कामना की कि में एक से अनेक रूप हो जाऊं, तप किया और सृष्टि रूप में सर्वत्र परिव्याप हो गया - "सोsकामयत। बहुस्याम प्रजायेयेति। स तपोsतपयत"...(६.४)। वही एक से अनेक, अनन्त रूप हो गया, पुरुष भी, स्त्री भी, जड़ और चेतन सबकुछ वही।
महोपनिषद - इस उपनिषद के अनुसार सृष्टि पूर्व एक नारायण ही थे। ... ह न ब्रह्मा थे, न रुद्र; न जल था, न अग्नि था, न सोम। न तो द्युलोक, भू लोक ही थे, न ही नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र ही। उसे एकाकीपन रास नहीं आया, उसने अपनी अंतः में ही "ध्यान यज्ञस्तोम" एक (महायज्ञ) किया और अनन्त नाम रूपों में सर्वत्र व्याप्त हो गया। यह सृष्टि उसी महायज्ञ की परिणति है - "ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानो नापो नाग्नी  ने मे द्यावा पृथ्वी न नक्षत्राणि न सुर्यो न चन्द्रमा। स एकाकी न रमते। तस्य ध्याननतः स्थास्य यज्ञस्तोममुच्यते.." (प्रथम अध्याय)।
तत्वदर्शी मनीषी ही इस सत्य को जानते है। अतएव मनीषियों ने पूरी दृढ़ता से, बल देकर घोषित किया कि केवल 'यही' मेरा बंधु - बांधव है, 'वह' नहीं है, ऐसी सोच क्षुद्रबुद्धि, छोटी सोच बालों की, अविवेकी लोगों की है। उदार चरित्र और विराट दृष्टि वालों के लिए तो सारा संसार, सम्पूर्ण विश्व, सभी नर-नारी ही कुटुम्ब हैं, इतना ही नहीं, यह प्रकृति भी हमारा अपना ही परिवार है -
"अयं बंधुरयं नेति गणना लघु चेतसाम। उदार चरतनाम् तु वसुधैव कुटुंबकम्।।"
छांदोग्य उपनिषद - छांदोग्य उपनिषद ने यज्ञ के रूपक से मानव और उसके पूर्वज प्रकृति का जिस प्रकार चित्रण किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें पांचवीं आहुति के बाद मानव जगत की परिकल्पना है और यह परिकल्पना अत्याधुनिक सृष्टि विज्ञान को भी चुनौती देती हुई उसके ज्ञान पथ को आलोकित करती प्रतीत हो रही है। आधुनिक विज्ञान भी इसी पथ का अनुगमन कर कृतार्थ होकर, फलफूल रहा है -
प्रथम आहुति - 
अग्नि   = द्युलोक
समिधा = आदित्य
धूम    = किरणें
अंगार  = चन्द्रमा
चिंगारियां = नक्षत्र
हवन सामग्री = श्रद्धा
उत्पाद    = सोम
द्वितीय आहुति - 
अग्नि   = पर्जन्य
समिधा = वायु
धूम    = बादल
ज्वाला  = विद्युत
स्फूलिंग = गर्जन
हवन     = सोम
उत्पाद   = वर्षा
तृतीय आहुति - 
अग्नि = पृथ्वी
समिधा = संवत्सर
धूम = आकाश
ज्वाला = रात्रि
अंगार = दिशाए
उत्पाद  = अन्न
चतुर्थ आहुति - 
अग्नि    = पुरुष
समिधा    = वाक
धूम      = प्राण
ज्वाला   = जिह्वा
अंगार      = चक्षु
विस्फुलिंग = श्रोत्र
आहुति     = अन्न
उत्पाद     = वीर्य
पंचम आहुति -
अग्नि      = स्त्री
समिधा    = उपस्थ
धूम     = उपमंत्रण
ज्वाला     = योनि
विस्फुलिंग = सुख
आहुति     = वीर्य
उत्पाद      = गर्भ
(छांदोग्य उपनिषद (५.१०. ४-८)।
यज्ञकार्य पुनीत सृजनवृत्ति, कल्याणमयी वृत्ति है। पूरे ब्रह्मांड में यह यज्ञ निरन्तर गतिशील है। यह वृत्ति जड़-चेतन में एक अनोखा 'अग्रज-अनुज सम्बन्ध' की स्थापना करता है। यही भाववृत्ति हमे पूरी प्रकृति के प्रति विनम्र और कृतज्ञ बनाती हुई एक प्यारा सा आत्मिक सम्बंध स्थापित करती है। संवेदनशील मानव मन पूरे प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होकर विनम्रता के साथ भ्रातृप्रेम, भावस्नेह की हिलोरें मारता हैं। इस प्रकार यह कृतज्ञता का विनम्र भाव ही "वसुधैव कुटुंबकम्" का मूल है। यहीं से यह स्नेहिल भावस्रोत सतत प्रवाहमान होकर सृष्टि में विश्वबन्धुत्व के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।
सनातन संस्कृति के अद्वैत दर्शन में पश्चिम की भांति न कोई (खुदा और वंदे जैसा या पुरुष और स्त्री जैसा) द्वैतवाद है, और न ही (पिता-पुत्र-मनुष्य जैसा) त्रेतवाद। यहां द्वैतवाद न होने से ऊंच-नीच, उत्तम-अधम जैसी संकल्पना के लिए कोई स्थान ही नहीं। केवल नर-नारी ही नही, पूरी की पूरी जड़-चेतन सृष्टि ही उस "एकम अद्वयम परमतत्त्व", "एक पुरुष" का विकास है, उसकी मंगल कामना, संकल्प का प्रतिफल है। श्वेताश्वतर उपनिषद (४.३) के तत्त्वदर्शी ऋषि ने उसे 'पुरुष और स्त्री, 'कुमार और कुमारी' रूप में "समभाव" से बिना किसी भेद के देखा - "त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। ... त्वं जातो भवसि विश्वतोमुख:" के सर्वरूप में सर्वत्र व्याप्त देखा। फलत: समर्पण, स्नेहिल भाव, अपनापन, अपनत्व और विश्वबंधुत्व का भाव, बसुधैव कुटुम्बकम केवल मानव जगत तक नहीं, अंतरिक्ष, आकाश, पर्वतों, वृक्षों, नदियों, पशु, पक्षियों, भूमि, वायु, अग्नि, पाषाण तक न केवल परिव्याप्त है, अपितु आचरण और व्यवहार में यह दिखता भी है। यही कारण है कि इस सनातन संस्कृति में जन्मभूमि केवल धरती का एक टुकड़ा मात्र नहीं, वह भाव रूप मे 'स्वर्गादपि गरीयसी' है, स्वर्ग से भी महान है, पवित्र मां सदृश है, मातृभूमि है, नदियां, वृक्ष भी उपयोगी और अग्रज होने के कारण मानव द्वारा पूज्य है। इनके संरक्षण और पोषण का विधान है। सनातन संस्कृति में "अन्य" और "अन्या" के लिए कोई स्थान है ही नहीं। अंतः इस अद्वैत दर्शन में यही बताया गया है कि "ईशावास्य इदम सर्वम यत किंच जगत्यामजगत", सभी में ईश्वरत्व का ही वास है। चिंतन मे हम पाते हैं "सर्वम खलु इदम ब्रह्म" की यह दिव्य  अवधारणा। ... और अंत में आचार्य छांदोग्य उपनिषद में निर्णय सुनाते ही नहीं, इसका साक्षात्कार भी करा देते है कि "तत्वमसि" = "तत त्वं असि, वह आत्मतत्त्व स्वयं तुम्ही हो" और शिष्य इसे अनुभूत भी कर लेता है इस रूप में - "अहं ब्रह्मास्मि"। अंततः इस एकत्व बोध में मन-बुद्धि मे शोक कैसा? कोई द्वेष कैसा? और मोह भी क्यों? "तत्र को मोह; क: शोक: एकत्वामनुपश्यत:"(ईश. उप. मंत्र ७)। मुण्डक उपनिषद साधिकार कहता है - इस परमतत्व का, आत्म तत्त्व का ही यत्र-तत्र-सर्वत्र दर्शन करो, वही तत्त्व आगे भी है, पीछे भी, दाएं भी है बाएं भी, ऊपर भी, नीचे भी; सर्वत्र वही तो परिव्याप्त है, विभिन्न नाम-रूपों में। "ब्रह्म वेद इदम अमृतम पुरस्तात ब्रह्म पश्चात ब्रह्म दक्षिणत च उत्तरेण । अध: च ऊर्ध्व च ..."। उसके अतिरिक्त यहां कुछ भी नहीं है (२.२.११)।
इस प्रकार यह प्रमाणित हुआ, सिद्ध हुआ कि एकमात्र सनातन दर्शन, सनातन संस्कृति में ही विश्वबन्धुत्व, विश्वबंधुत्व की भावना अंतर्निहित है, किसी भी और दर्शन या संस्कृति मे यह विशेषता नहीं है। यहां सभी "स्व" के ही विभिन्न रूप है, स्व ही हैं। अतएव सभी प्रिय हैं, यही आत्मप्रियता है। किसी से वैर नहीं, किसी से द्वेष नहीं। दांपत्य में कलह, क्लेश, तलाक़ की कल्पना तक नहीं। तलाक एक आयातित शब्द है, यह सनातन संस्कृति का शब्द ही नहीं। इसका पर्यायवाची शब्द भी नहीं मिलेगा हमारी दिव्य संस्कृति में। सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों। सभी आत्म स्वरूप ही है; इसीलिए हमारे पूर्वज दृढ़ता से कह पाए पूरे आत्मविश्वास के साथ - "सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित दु:ख भागभवेत"।
- डॉ जयप्रकाश तिवारी ग्राम व पोस्ट- भरसर, जिला- बलिया, उत्तर प्रदेश संपर्क: 9450802240
 

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