कभी तुम्हे लिख न पाया- विनोद निराश

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तुम्हारे इश्क़ में खोकर, 
तुम्हारी रूह से होकर, 
उम्र से लम्बी सड़क तय की,
मगर तुम तक कभी पहुँच न पाया। 

इश्क़ की चासनी में पगे शब्दों को लेकर,
तुम्हारे रूप को गूँथकर,
बहुत बार कोशिश की तुम्हे लिखने की, 
मगर कभी तुम्हे लिख न पाया। 

कई बार चाहा लिखूं कोई प्रणय कविता, 
स्मृतियों के अशेष शब्द लेकर, 
नेह के धागे में पिरोता रहा,
मगर कभी गिरह लगा न पाया। 

बार-बार शब्दों को समेटता  रहा, 
वो छिटकते रहे, दूर जाते रहे,
एकाकी मन भटकता रहा मृग तृष्णा लिए,
मगर कभी भावनाओं की माला बना न पाया।  

प्रेम में टूटकर भी खुद को जोड़ता रहा, 
मैं विरह से आकंठ तृप्त रहा,
स्मृतियों के समंदर में सुख की अनुभूति करता रहा,
मगर कभी निराश मन की आस बंधा न पाया।
- विनोद निराश , देहरादून 
 

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