भगवान महावीर का वीतराग दर्शन (महावीर जयंती) - डॉ. चंचलमल चोरडिया

 
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utkarshexpress.com - इस संसार में समय-समय पर अनेक महापुरुष हो चुके हैं जिन्होंने पीडित मानव को सन्मार्ग पर लगाने का प्रयास किया। प्राय: सभी धर्म-प्रर्वतक अपनी-अपनी विशिष्टताओं से अलंकृत रहे। उन्होंने देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप अपनी-अपनी प्रज्ञा के अनुसार तत्कालीन समस्याओं के समाधान में सहयोग दिया। मानव को उसके परम लक्ष्य एवं कर्तव्यों का बोध कराया। नर से नारायण और आत्मा से परमात्मा बनने की कला सिखलाई। उनमें आस्था रखने वाले विभिन्न धर्मावलम्बी अनुयायी आज भी उसका आचरण करने का प्रयास करते हैं। प्राय: सभी व्यक्ति अपने-अपने धर्म अथवा आचरण को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। परन्तु धर्म क्या है? उसका आचरण क्यों और कैसे किया जाना चाहिये? धर्म तो सदैव कल्याणकारी होता है। अपरिवर्तनीय होता है। उसमें वैमनस्य, विरोध और विभेद को कोई स्थान नहीं। धर्म अलग है और साम्प्रदायिकता अलग है। धर्म तो प्राणी मात्र को जन्म जरा एवं मृत्यु रूपी चक्रव्यूह से मुक्त करता है। धर्म की प्रामाणिकता उसके मानने वाले अनुयायियों की संख्या के आधार पर नहीं, अपितु उसके सिद्धान्तों की सूक्ष्मता पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से जितना स्पष्ट, तर्क संगत, वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म विश्लेषणषण भगवान महावीर ने किया, अन्यत्र दुर्लभ है।
जैन परम्परा में तीर्थकरों का स्थान सर्वोपरि है। वे साक्षात ज्ञाता, दृष्टा, वीतरागी होते हैं। भगवान महावीर से पूर्व भी इस अवसर्पिणी काल में तेईस तीर्थकर हो चुके हैं, जिन्होंने धर्म के शाश्वत स्वरूप का बोध कराया। महावीर ने किसी नये धर्म का प्रतिपादन नहीं किया, परन्तु उसी सनातन सत्य का साक्षात्कार कर प्राणिमात्र के कल्याण हेतु उपदेश दिया। सभी सर्वज्ञों के उपदेश सिद्धान्त समान होते हैं, क्योंकि सत्य सनातन होता है। आवश्यकता है उसके सही स्वरूप को समझने एवं अपनाने की। धर्म आचरण की वस्तु है, थोपने की नहीं। इसी कारण जैनियों के महामंत्र नमस्कार, मंगलपाठ एवं अनुष्ठïानों की साधना में गुणों को ही महत्व दिया गया है। किसी महापुरुष की नाम से पूजा अथवा गुणगान नहीं किया गया है। अत: यह मानना गलत होगा कि वर्तमान में जैन धर्म के नाम से प्रचलित धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर थे।
महावीर मात्र नाम नहीं है, उसका सम्बन्ध कर्म से है, कथन मात्र से नहीं। जो वे करना चाहते थे उसका पहले स्वयं उन्होंने अनुभव किया। शारीरिक बल से मानसिक बल ज्यादा शक्तिशाली होता है और आत्मबल के सामने सारे बल तुच्छ हैं। युद्ध में हजारों योद्धाओं को जीतने की अपेक्षा अपने आपको जीतना, स्वयं को संयमित, नियमित, नियन्त्रित, अनुशासित रखना ज्यादा दुष्कर है। आत्मा पर आये कर्मों का आवरण हटते ही व्यक्ति सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सर्व शक्तिमान एवं त्रिकाल ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है। सम्पूर्ण आत्मानुभूति की अवस्था में विज्ञान की भौतिक जानकारी तो होती ही है, परन्तु उससे भी कहीं अधिक ब्रह्माण्ड के वर्तमान, भूत एवं भविष्य की सूक्ष्मतर एवं सम्पूर्ण जानकारी हो जाती है। वास्तव में वे जीवन के सर्वोच्च कलाकार, पथ प्रदर्शक एवं सर्वोच्च वैज्ञानिक होते हैं। उनका उपदेश भौतिक उपलब्धियों की प्राप्ति के लिये न होकर जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति हेतु होता है।
महावीर को समझने के लिये हमें पहले अपने सभी पूर्वाग्रहों को छोडऩा होगा। उनका प्रत्येक आचरण एवं उपदेश सनातन सत्य पर आधारित है, जिसको समझने के लिये आवश्यक है व्यापक दृष्टिïकोण। उनके उपदेश विषम परिस्थितियों एवं काल के थपेड़ों के बावजूद आज भी अक्षुण्ण बने हुए हैं। आध्यात्मिक साधना में उनका दृष्टिकोण सम्पूर्णता की खोज पर आधारित था। अनुशासनहीनता के बीच उनका जोर आत्मानुशासन पर था। उन्होंने आत्म-विकास के लिये ज्ञान एवं क्रिया के समन्वित प्रयास को आवश्यक बतलाया। वे उस ढोंगवाद को नहीं मानते, जो भोगी होते हुए भी अपने आपको परम योगी मानते हैं। भोगी निर्विकारी कैसे हो सकता है? जो मन में होगा वही तो आचरण में प्रदर्शित होगा। उन्होंने भाव क्रिया के महत्व को भी उजागर किया। मात्र जड़ क्रिया-काण्डों से व्यक्ति का उत्थान नहीं हो सकता। उन्होंने यतना अर्थात्ï विवेक में ही धर्म माना। यदि हमारा प्रत्येक कार्य विवेक एवं प्रज्ञानुसार हो तो नवीन कर्मों के बंधन की सम्भावनाएं कम हो जाती है। उनके अनुसार प्रमाद विकास में सर्वाधिक बाधक है। प्रमाद अर्थात्ï सुषुप्त अथवा असावधान। अज्ञानी ही प्रमादी होता हैं। जो स्वयं असजग है, अपने प्रति ईमानदार नहीं, वह दूसरों को कैसे जगा देगा। अत: भगवान महावीर ने स्वयं साढ़े बारह वर्ष तक उग्र साधना कर पूर्णता प्राप्त की। जब तक सर्वज्ञ न बने पूर्ण मौन रहे। परन्तु जागृत होने के पश्चात संसार को सही मार्ग का उपदेश देने में कंजूसी नहीं की। जीवन में प्रवृत्ति और विकृति की जितनी सूक्ष्मतम, तर्क संगत व्याख्या और विवेचन महावीर ने श्रमणाचार की नियमावली में किया उसकी अन्यत्र कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज भी बढ़ती मायावृत्ति एवं शिथिलाचार के बावजूद महावीर की परम्परा के श्रमण और श्रमणी वर्ग, जिस सूक्ष्म अहिंसा का पालन कर अपनी जीवनचर्या चलाते हैं, वैसी कठोर आचार संहिता अन्यत्र ढूंढऩा कठिन है। वास्तव में महावीर का उपदेश प्राणिमात्र के लिये उपयोगी है। वहां भेदभाव और आशंकाओं की कोई गुंजाइश नहीं। न तो किसी के साथ भेदभाव, न अपने भक्तों के लिये विशेष रियायत। उनके विराट् व्यक्तित्व को चंद प्रसंगों के आधार पर परखा जा सकता है।
प्रतिकूलता आत्मबल की कसौटी :- 
महावीर ने साधना हेतु राजपाट छोड़ा। पद, और पैसे और परिवार का त्याग किया। अगर वे चाहते तो अपने राज्य में भी एकान्त साधना कर सकते थे। परन्तु उन्होंने साधना के लिये प्रतिकूल क्षेत्र चुना जहां उनका कोई परिचित नहीं था। वे जानते थे कि आत्मबल की परीक्षा प्रतिकूलता में ही हो सकती है। परन्तु आज हम प्रतिकूलता को पसन्द नहीं करते। उन्होंने पद, पैसा और परिवार का मोह त्यागा। परन्तु आज प्राय: हम पद, पैसे और परिवार के पीछे दीवाने बन अपने आपको उनके अनुयायी समझने का अहम् करें, कितना अप्रासंगिक है। इस पर सारे पूर्वाग्रह छोड़ शुद्ध चिन्तन अपेक्षित है।
स्वावलम्बन के उद्घोषक :-
महावीर आत्म-साधना में स्वावलम्बन के पक्षधर थे। मनुष्य को अपने कर्मों का क्षय अपने ही पुरुषार्थ से करना होता है। अत: वे साधना पथ पर अकेले ही आगे बढ़े। जब देवों के सम्राट शके्रन्द्र उनकी सेवा में उपस्थित हो प्रार्थना करने लगे ‘भगवन्ï आपको साधना काल में भयंकर उपसर्ग (कष्टï) आने की संभावना है, अत: मैं आपकी सेवा में रहकर उससे रक्षा करना चाहता हूं।’ उसके प्रत्युतर में भगवान महावीर ने कहा- ‘आज तक कोई भी प्राणी दूसरों की सहायता से अपने समस्त कर्मों से मुक्त नहीं हुआ। किये हुए कर्मों का भुगतान तो स्वयं को ही करना पड़ता है।’ इस प्रकार उन्होंने प्राणी मात्र से स्वावलम्बी बन अपनी सुषुप्त चेतना को जाग्रत करने का आत्मविश्वास जागृत किया। 
स्वावलम्बन की पहली शर्त है स्वाधीनता। पराधीनता दु:ख का कारण है, जो दासता में जकड़ती है। स्वाधीनता में ही सुख है। वही अपनी शक्तियों के विकास का केन्द्र बिन्दु है। स्वाधीनता से ही अपनी अनन्त शक्तियों का द्वार खुलता है। जिससे सम्यक्ï ज्ञान, सम्यक्ï दर्शन और सम्यक्ï चरित्र प्रकट होता है। महावीर कठोर, परन्तु हृदयग्राही, आत्मानुशासन के प्रवर्तक थे। साधक यदि कठोर मार्ग पर न चले तो उसके फिसलने की संभावना सदैव बनी रहती है। अत: वे स्वयं कठोर चर्या में रहे तथा अपने शिष्य समुदाय के लिये भी उन्होंने कठोर श्रमणाचार का निर्देशन किया। उन्होंने भक्त और भगवान के बीच की खाई को समाप्त करने का उपदेश दिया।  अवतारवाद की मान्यता उन्हें स्वीकार नहीं थी। उन्होंने प्राणी मात्र के अन्दर उस परम परमात्म पद को पहिचाना। इसी कारण उनके सम्पर्क में आकर सम्यक्ï साधना में पुरुषार्थ करने वाले अनेक साधक उनके समकक्ष सर्वज्ञ बन गये।
अनन्त करुणामय व्यक्तित्व :-
दुनिया में मातृत्व में ही इतनी शक्ति है कि अपने बच्चे के प्रति अपार अनुराग होने से माता के स्तनों में दूध आने लगता है। महावीर के जीवन के अलावा संसार में आज तक ऐसा दृष्टïान्त उपलब्ध नहीं कि चण्डकौशिक जैसा भयंकर दृष्टिï विषधारी सर्प काटे और रक्त के स्थान पर दूध की धारा बहे। प्राणिमात्र के प्रति कितनी दया, करुणा, अनुकम्पा और कल्याण की भावना होगी ऐसे महापुरुष में, जिसकी सहज कल्पना भी नहीं की जा सकती।
नारी उत्थान -
भगवान महावीर के युग में भारतीय नारी की बहुत दुर्दशा थी। नारी उत्पीडऩ की तरफ जनसाधारण का ध्यान आकर्षित करने हेतु अपने साधना-काल में उन्होंने तेरह बोलों का कठोर अभिग्रह (संकल्प) लिया। जिसके अनुसार  उन्होंने तब तक भिक्षा ग्रहण न करने का निश्चय किया जब तक कोई तीन दिन की भूखी, रोती हुई, भूतकाल की राजकुमारी, हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेडिय़ां, सिर से मुण्डित, अबला उन्हें भिक्षा नहीं देगी। कैसी उपेक्षित थी नारी उस युग में? सहज ही कल्पना की जा सकती है।
ऐसे समय में नारी को अपने धर्म-संघ में दीक्षित कर श्रमणी बनाना तथा अपने धर्म तीर्थ में साधु और श्रावक के समकक्ष क्रमश: साध्वी तथा श्राविका को स्थान देना उस युग का कितना क्रान्तिकारी कदम होगा।
जातिवाद का प्रतिकार  -
भगवान महावीर की स्पष्टï घोषणा थी कि मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। हरिकेशबल जैसे नीच कुल में जन्मे व्यक्ति को अपने धर्म संघ में दीक्षित कर, धर्म के नाम पर जातिवाद का उन्होंने प्रतिकार  किया।जातिवाद के नाम पर राष्टï्र में विघटन करने वालों एवम्ï अपने स्वार्थों से प्रेरित अनुसूचित एवं नीच जातियों के उत्थान का दावा करने वालों को महावीर के जीवन प्रसंगों का अध्ययन कर अहम्ï छोड़ देना चाहिए।
पाप से घृणा करो पापी से नहीं -
भगवान महावीर ने अर्जुनमाली जैसे 1141 व्यक्तियों की हत्या करने वालों को अपने धर्म संघ में दीक्षित कर साधना के क्षेत्र में इतना गतिमान किया कि छ: मास के अन्दर ही उसने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। भगवान महावीर ने इस घटना के माध्यम से जनसाधारण को प्रतिबोधित किया कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। क्योंकि पापी कभी भी पाप छोडक़र धर्मी बन सकता है, परन्तु पाप कभी धर्म नहीं हो सकता।
रागद्वेष त्यागें बिना मोक्ष नहीं -
सम्पूर्ण सत्य की व्याख्या और सूक्ष्मतम विश्लेषण वही कर सकता है जो स्वयं वीतरागी है। उसका न तो किसी के प्रति राग होता है और न किसी के प्रति द्वेष। जब तक राग और द्वेष रहेगा अपने भक्तों के प्रति ममत्व और अन्य की उपेक्षा होना संभव है। विश्व के इतिहास में शायद ही कहीं ऐसा दृष्टïान्त मिलता है कि भक्त अपने परम लक्ष्य मोक्ष को तब तक प्राप्त न कर सका जब तक उसको अपने आराध्य के प्रति राग था। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम को भी तब तक केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई जब तक कि उनका भगवान के प्रति राग समाप्त नहीं हुआ। आज जो साम्प्रदायिक कट्टïरता से धर्म बदनाम हो रहा है, उसका रूप विकृत हो रहा है, अपने को ही अच्छा और अन्य को बुरा बतला कर घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है, उन सभी धर्म के ठेकेदारों को चिन्तन करना होगा कि कहीं उनका आचरण उनके आत्म-विकास में बाधक तो नहीं है।
सम्यक्त्व ही साधना का केन्द्र - 
भगवान महावीर ने मिथ्यात्व अथवा गलत धारणा, मान्यता, श्रद्धा को मोक्ष की साधना में सबसे अधिक बाधक माना। सम्यक्त्व (सही दृष्टिï) के बिना सच्चा ज्ञान और आचरण सम्यक्ï नहीं हो सकता है। उनकी साधना का लक्ष्य था समभाव से वीतरागता की प्राप्ति। समता ही धर्म का लक्ष्ण है। वह विवादों से परे होता है। उतार-चढ़ाव, मान-अपमान, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आपको विचलित न होने देने का मूल मंत्र है। 
दूसरी बात यह है कि जब तक जीव-अजीव का सूक्ष्मतम भेद समझ में नहीं आएगा अहिंसा का पालन पूर्ण रूप से नहीं हो सकता। पृथ्वी, अग्रि, वायु और जल में चेतना को सर्वज्ञ ही जान सकते हैं। वर्तमान विज्ञान की पहुंच से भी वह बहुत परे है। इसी कारण अन्य धर्मों में सूक्ष्म हिंसा से बचने का प्रावधान एवं सोच नहीं है, जितनी बारीकी से जैन श्रमणाचार की नियमावली में प्रतिपादित किया गया है।
महावीर का दर्शन सभी के लिये जीवन्त दर्शन है, अलौकिक दर्शन है। उसके अभाव में ज्ञानी का ज्ञान, पंडित का पांडित्य, विद्वान की विद्वत्ता, धार्मिक का धर्माचरण, भक्तों की भक्ति, अहिंसकों की अहिंसा, न्यायाधीश का न्याय, राजनेताओं की राजनीति, वैज्ञानिकों की वैज्ञानिक शोध, चिकित्सकों की चिकित्सा, चिन्तकों का चिन्तन, लेखकों का लेखन, कवि का काव्य अधूरा है जो सार्वकालिक सत्य नहीं हो सकता है। कहने का सारांश यही है कि महावीर के सिद्धान्तों से मतभेद रखना, उन्हें अस्वीकारना, चिन्तनशील, प्रज्ञावान, विवेकवान व्यक्ति के लिये संभव नहीं। फिर वह जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो? उनके दर्शन में अहिंसा, अनेकान्त अपरिग्रह का समग्र दर्शन है जो शाश्वत सत्य की आधारशिला पर स्थापित किया गया है। (विनायक फीचर्स)

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