चुनावी वादों कि बौछार, कौन ज़िम्मेदार - हरी राम यादव

 
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utkarshexpress.com - हमारा देश भारत एक प्रजातांत्रिक देश है। यहां गांव  से लेकर देश चलाने तक मतदान के माध्यम से चुने गये लोग शासन की बागडोर संभालते हैं। एक बार चुनाव जीत कर जनप्रतिनिधि पांच वर्ष तक शासन की मुखियागीरी/प्रतिनिधित्व करते हैं और इसके बाद  फिर चुनाव होते हैं। देश में अलग अलग स्तर की शासन व्यवस्था  को चलाने के लिए अलग अलग चुनाव चलते ही रहते हैं । कभी ग्राम प्रधान , कभी ब्लाक प्रमुख , कभी विधायक तो कभी सांसद का चुनाव । देश में सभी स्तर के  चुनावों को सम्पन्न करवाने के लिए चुनाव आयोग का गठन किया गया है । यह एक स्वायत्त संस्था है जो कि निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए जिम्मेदार है ।
सभी राजनीतिक दल चुनाव में अपना घोषणा पत्र जारी कर जनता को अपनी मंशा बताते  हैं कि यदि मेरा दल विजयी होता है तो मैं अगले पांच साल में अमुक कामों को करूंगा। लोकसभा के इस चुनाव में कोई इस घोषणा पत्र को गारंटी कह रहा है तो कोई न्याय पत्र कह रहा है । कोई दल कह रहा  है कि मैं इतने लाख युवाओं को रोजगार दूंगा, फ्री राशन दूंगा, इतनी महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाऊंगा तो कोई दल  किसानों को मुफ्त बिजली, पानी और कर्ज माफ और युवाओं  को सरकारी नौकरियां, रोजगार करने वाले युवाओं को कम व्याज दर पर लोन देने की बात कर रहा है। दलों के प्रत्याशी और उनके कुछ शागिर्द लोग गांव गांव में घूमकर जनता को अपने पक्ष में करने के लिए उनकी स्थानीय आवश्यकता जैसे संपर्क मार्ग, नाली, विद्युत व्यवस्था आदि को ठीक करवाने या  बनवाने की बात कर रहे हैं। 
अगर आप पिछले चुनावों में किए गए वादों को देखें तो पाएंगे कि आधे वादे भी पूरे नहीं हुए। कुछ दिनों पहले पांच राज्यों में सम्पन्न हुए  विधानसभा चुनाव में जगह जगह वादे न पूरे करने वाले जनप्रतिनिधियों को जनता के भारी बिरोध का सामना करना पडा था। जनता सीधे तौर पर कह रही थी कि- " पहले जो कहा था वह ही पूरा नहीं किया। अब किस मुंह से वोट मांगने आये हो"। कहीं कहीं तो गांव वालों ने बाकायदा बोर्ड भी लगाया था " जब तक रोड नहीं, तब तक वोट नहीं"। यही हाल वर्तमान लोकसभा चुनाव में भी है । पिछले लोकसभा चुनाव में जीत हासिल किए कई माननीयों को भारी शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है। कई गाँवों में लोगों ने पूर्ण रूप से चुनाव का बहिष्कार करने का एलान कर दिया है। 
आखिर राजनैतिक दल /जनप्रतिनिधि ऐसे लम्बे चौड़े वादे क्यों करते हैं जो पूरा ही न हो सके? क्या यह घोषणाएं सिर्फ मुगालते में रखकर वोट लेने के लिए की जाती हैं ? राजनैतिक दलों /जनप्रतिनिधियों की यह जिम्मेदारी नहीं है कि अपने किए गए वादों को पूरा करें? क्या जनता के प्रति उनकी कोई जबावदेही नहीं है? शायद नहीं। क्या यह जनता से जनप्रतिनिधियों और दलों की धोखाधड़ी नहीं है? अन्य प्रदेशों में भी चुनाव जीतने के बाद जिन दलों ने कुछ घोषणाओं को लागू भी किया उनमें जानबूझकर इतने नियम लगा दिए हैं कि कम से कम लोगों को उसका लाभ मिले। आखिर राजनीतिक दल अपने चुनाव के घोषणापत्र में इन नियमों को स्पष्ट क्यों नहीं करते कि यह लाभ केवल उनको मिलेगा जो गरीबी रेखा से नीचे हैं या जिनकी आमदनी इतने हज़ार रूपये है। 
इन घोषणाओं के भी अपनी सुविधानुसार नाम हैं जैसे जन कल्याण, मुफ्त की रेवड़ी आदि । इस मुफ्त प्रथा की शुरुआत दक्षिण भारत से हुई । दक्षिण भारत में सुश्री जयललिता से लेकर तमाम ऐसे नेता रहे जिन्होंने हर चुनाव में फ्री को अपना अचूक हथियार बना लिया था वहाँ साड़ी, टेलीविजन, मिक्सर तथा कई अन्य घरेलु वस्तुएँ मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए बांटी जाती थीं और यह जल्दी ही यह मुफ्त सिस्टम दक्षिण से चलकर उत्तर भारत तक आ पहुंचा और प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक के चुनाव में मुफ्त का यह सिलसिला जोरों से चल पड़ा है । हर राजनीतिक दल ने इसे अपना हथियार बना लिया है ।  सबने अपनी अपनी तरह से  मुफ्त देने के वादे करने शुरू कर दिए हैं ।  चुनाव के आठ दस महीने पहले  ही सत्ता में बैठा दल तमाम फ्री योजनाओं की झड़ी लगा देता है और विपक्ष में बैठे लोग संसाधनों के अभाव में तरह तरह कि लोक लुभावनी योजनाओं की घोषणा अपने घोषणा पत्र में करते हैं । अभी इस लोकसभा चुनाव से ठीक पहले हमारे समाज में एक नए वर्ग का उदय हुआ है वह है लाभार्थी वर्ग । यह लाभार्थी वर्ग इसी तरह की योजनाओं की उपज है । इससे पहले यह शब्द प्रचलन में नहीं था । इस तरह की फ्री की योजनाओं से देश के करदाता पर अतिरिक्त भार पड़ता है और विकास की गति अवरुद्ध होती है। कर का जो पैसा देश के विकास में लगना चाहिए वह फ्री की योजनाओं को चलाने में चला जाता है।
सरकार को चाहिए कि इन बेलगाम घोषणाओं को रोकने के लिए  कानून का निर्माण करे। हर दल के लिए यह अनिवार्य बनाया जाए कि वह अपनी घोषणाओं को शपथपत्र के साथ उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय में जमा करवाये। जो दल चुनाव जीतता है और सरकार बनाता है, वह दल अपने घोषणापत्र की समस्त घोषणाओं को पांच साल में पूरा करें। अगर दल अपनी घोषणाओं को पूरा नहीं करता या मुकरता है तो उस दल को आजीवन चुनाव लडने पर प्रतिबंध लगाया जाए।  भारतीय दंड संहिता के अनुसार दल के अध्यक्ष को जनता से धोखाधड़ी करने के लिए कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए। आखिर वादों को पूरा न करना देश की 140 करोड़ जनता से धोखाधड़ी ही तो है?
क्या देश के शीर्ष पदों पर  बैठे जिम्मेदार लोग इस तरह का कानून बनाकर जनता के साथ जनप्रतिनिधि कहलाने वाले लोगों या दलों की धोखाधड़ी को रोकने में दरियादिली दिखाएंगे? क्या जो दल अपने को सच्चा और जनता का सबसे बड़ा हितैषी कहते घूम रहे हैं वे आगे आकर राजनीति की इस झूठी धारा को सही दिशा में मोड़ने के लिए कदम बढ़ाएंगे? इस तरह की झूठी घोषणाओं से समाज अपने को ठगा हुआ महसूस करता है और यही कारण है कि दिन प्रतिदिन चुनाव के प्रति लोगों में उदासीनता का भाव पैदा होता जा रहा है और  मत प्रतिशत में कमी आ रही है । मत प्रतिशत का गिरता स्तर प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है ।   
 - हरी राम यादव, अयोध्या , उत्तर प्रदेश,  फोन नंबर - 7087815074

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