क्यो रूठें हों मदन कहो - सविता सिंह

 
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आ जाये फिर से वही शाम, 
चल ना एक दूजे  को थाम। 
दो कदम ही सँग चलते  पर 
बनें हमारे सारे  काम। 
उन्होंने ही तो सब चुने थे 
सपन सलोने थे बुने।  
सिर्फ भला मैं ही क्यों सुनती 
वह नहीं क्यों कभी  सुने।
उसी राह पर खड़े अभी हैं 
किस बात पर इतने अड़े। 
कुछ तुम बोलो कुछ हम कहते , 
छोटी बातों पर क्यों लड़े।
लड़कर ही कुछ बातें तो हो, 
मौन भला ये क्योंकर हों।
थे जब संग टलती थी बाधा, 
जीवन अब क्यों दुश्वर हों।
है अलग सी प्रीत हमारी, 
दोनों एक दूजे के मीत।
पृथक हमारे रस्ते लेकिन 
प्यार की तो होती है जीत। 
मन हो विचलित जब तुम ना हो,
हो जाती थी तनिक चकित।
हो जाएँ फिर हम  संग संग ,
जी लें जीवन हों सस्मित।
- सविता सिंह मीरा, जमशेदपुर

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