यतीम औरत (कहानी) - आनन्द बिलथरे

 
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utkarshexpress.com - मैं जब पहुंचा रात्रि के आठ बज रहे थे। पुष्पा अकेली थी। उसने मुझे अपने बेडरूम में बुलवा लिया। बेडरूम और पुष्पा दोनों, दुल्हन की तरह सजे थे।
बैठो।
मैं बैठ गया।
आज मेरी शादी की वर्षगांठ है।
विश यू हैप्पी ऐनीवर्सरी।
थैंक्यू।
लेकिन और मेहमान? खन्ना साहब भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं।
मुझे भीड़ पसंद नहीं है। रहे खन्ना साहब, उन्हें तनहाई पसंद नहीं है। बोलो क्या पियोगे?
तुम्हें किसने कहा, मैं पीता हूं।
हर बात, कही-सुनी नहीं जाती। इतना बड़ा लेखक क्या बगैर पिये ही, मन के अंधेरे, सूने कोनों में ताकझाक कर लेता है?
क्या, यही बात, तुम पर भी लागू नहीं होती।
होती है यार। दीया जलकर ही तो रोशनी देता है।
पुष्पा ने, व्हिस्की के दो पैग तैयार किये।
चियर्स, फॉर युअर हैप्पी मेरिड लाइफ।
उसने कोई जवाब नहीं दिया और एक ही घूंट में ग्लास खाली कर दी। मैं, धीरे-धीरे सिप करता रहा। काजू कुतरता रहा। तब तक उसने दो पेग और हलक के नीचे उतार लिये।
आज से पांच साल पहले मेरी शादी हुई थी। जानता हूं। समाचार पत्रों में तुम्हारी तस्वीर छपी थी।
मैं चाहती थी, दूसरी तस्वीर उसकी हो।
किसकी? खन्ना साहब की नहीं। लेकिन इस तस्वीर में पद और पैसे का बड़ा आकर्षण था। वह तस्वीर, मेरा भला चाहने वालों को पसंद आई।
उसने, मेरी ग्लास में दूसरा पैग भरा और बर्फ के टुकड़े डाल दिये। मैंने भी शिष्टाचारवश उसके पैग में थोड़ी व्हिस्की डाली लेकिन उसने बोतल छीनकर उसे लबालब भर दिया।
मेरा पहला कत्ल, लग्नमण्डप में हुआ। दूसरा इसी कमरे में।
कत्ल?
हां, मेरी उम्मीदों, मेरे अरमानों का कत्ल। खन्ना साहब के लिये, औरत कोई नई चीज नहीं थी। इसी कमरे में वे कई बार सुहागरात मना चुके थे। उन्हें तो अपनी जरूरत के लिये एक खूबसूरत जिस्म चाहिये था, ऐसा जिस्म, जो गहने, कपड़े, मंगलसूत्र पहनकर समाज में उनकी प्रतिष्ठा कायम रख सके।
उस रात के बलात्कार को मैं आज तक नहीं भूल सकी हूं। उन्होंने पति के हक से, जिस तरह मुझे रौंदा, कोई बर्बर बलात्कारी भी नहीं रौंदता होगा।
फिर?
एक सांस में ही उसने ग्लास खाली कर दी। फिर वही कहानी, हर रात, दोहराई जाने लगी। मैं हर दिन टूटने, संवरने और फिर टूटने लगी। मुझे लगता, ये मुझे पत्नी समझते हैं, या रखैल। वे हर रात शरीर रौंदने की कीमत सुबह गहने, कपड़े देकर चुका देते। मैं अपने उसको याद करती। आंसू बहाती, उसकी तस्वीर को सामने रखकर बातें करती किन्तु खन्ना साहब की दृष्टिछाया में आते ही, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व, अंधकार में समा जाता।
बोतल खाली हो गई थी। उसकी आँखों में लाल डोरे तैरने लगे थे।
प्लीज, फ्रिज से एक बोतल खींच लावो।
तुम बहुत पी चुकी हो। अब, बस भी करो।
कहां यार, अभी तो मैं कुछ भी नहीं भूली हूं। बीच में टोककर मजा खराब मत करो।
मैं चुपचाप, फ्रिज खोलकर बोतल निकाल लाया।
लेकिन आठवें ही दिन, मैं बेदखल कर दी गई।
बेदखल?
हां, बेदखल, पत्नी के हक से बेदखल, और ये सिलसिला चलता ही रहा। खन्ना साहब को जल्दी-जल्दी अपनी स्टेनो बदलने की आदत जो है।
तुमने प्रतिवाद नहीं किया?
प्रतिवाद! किससे....? एक बलात्कारी से। उन्होंने मुझे पत्नी माना ही कब था। सिन्दूर और मंगलसूत्र का, नाम ही तो, पत्नी नहीं होता।
मैंने खामोशी से सब बर्दाश्त कर लिया। अपने बचे-खुचे, अस्तित्व को अपनी खोल में समेट लिया। चोट जख्म बनी, फिर नासूर और जब मवाद रिसने लगा, मैंने उसे कागज में समेट लिया।
इस तरह तुम कवियित्री बन गई।
मैं नहीं जानती, इसे क्या बनना कहते हैं, लेकिन इस बहाने में नासूर की जलन से बच गई।
और खन्ना साहब?
उन्हें, अपने से ही फुर्सत कहां है। क्लब, पार्टी, डिनर और जरूरत पडऩे पर मेरा जरखरीद जिस्म। कम्बख्त यह जिस्म है कि हर बार रौदे जाने के बाद मेंहदी सा निखरता ही जाता है।
और तुम्हारा वो?
क्या मेरे हर गीत, हर छंद में तुम्हें वो दिखाई नहीं देता। वह तो, मेरे पास ही है, मेरे मन में, यहां। कितने सपने देखे थे हमने। एक घर का... नन्हें बबलू का लेकिन खन्ना साहब को तो मेरा फीगर चाहिये था। जब मैं तीसरी बार डॉ. कौशल्या के पास ले जाई गई तो जानते हो, मैंने क्या कहा? मैंने कहा डॉक्टर तुम तो चुपके से मेरा यूटेरस ही निकाल दो। बार-बार की झंझट तुम्हारी भी खत्म, मेरी भी खत्म।
क्या खन्ना साहब को बाप बनने का शौक नहीं है? उन्हें सिर्फ मां बनाने का शौक है- वो भी अधूरी मां। अगर पूरी बन गई तो वे कौन सा चेक देकर तरक्की खरीदेंगे। पुष्पी, अब तुम बहक रही हो। शायद खन्ना साहब भी आते ही होंगे।
नहीं यार अभी तो सुरूर शुरू हुआ है। रहे खन्ना साहब, वे अपनी नई स्टेनो के साथ टूर पर हैं। एक बात कहूं। प्लीज, एक पैग और।
पुष्पा मैं पहले ही बहुत ले चुका हूं।
मेरी कसम, बस एक-एक पैग, लास्ट चांस।
काजू कुतरते-कुतरते वह बोली- एक बात पूछूं। बुरा तो नहीं मानोगे। तुम्हारी अर्पण में छपी कहानी अंधेरे के साये का रवि कौन है?
पुष्पा, एक कवियित्री होकर तुम ऐसा बचकाना सवाल पूछ रही हो। नहीं, मुझे बताओ। कौन है रवि। कहां मिला था वह तुमसे। प्लीज, मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूं। मेरा सब कुछ ले लो, लेकिन एक बार, रवि से मिला दो। सिर्फ एक बार।
पुष्पा, तुम बहक रही हो।
नहीं मैं होश में हूं। अगर तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया तो बहक जाऊंगी। तुम मेरे और रवि के संबंध में इतना कुछ कैसे जानते हो?
देखो पुष्पी वो जो कोई भी है उसने तुम्हारे मन-मस्तिष्क पर इस कदर अधिकार जमा लिया है कि, हर पात्र, हर भूमिका में तुम्हें वही दिखाई देता है।
मैं पुष्पा खन्ना, एक अफसर की बीवी नामचीन कवियित्री भीतर से कितनी टूटी हूं, कितने टुकड़े में बंटी- काश, कोई समझ सकता। मुझे तो लगता है, औरत होना ही पाप है। तुम एक वादा करोगे?
हां, बोलो।
अब से, अपने किसी पात्र का नाम रवि मत रखना।
मैं चुप रहा।
चुप क्यों हो। बोलो- हां।
हां, पुष्पा मैं वादा करता हूं। रवि तुम्हारा है- सिर्फ तुम्हारा। मुझे अंधेरे के साये लिखना ही नहीं चाहिये था।
तुम नहीं जानते दोस्त, औरत, फौलादी मीनार जरूर है, लेकिन जब टूटती है, तो रेत की दीवार की तरह सम्हाले नहीं सम्हलती।
इसे सम्हाल कर रखे जिस्म को कितने कुत्ते-बिल्लियों ने झूठा किया है, तुम नहीं जानते। लेकिन, तन से जूठी होकर भी मैं मन से जूठी नहीं हूं। मेरा रोम, सांस-सांस, उसकी है। वह, सोते, जागते, हरदम मेरे साथ है। अगर मेरा उसका ब्याह हुआ होता तो भी यह हमारी, पांचवीं ही वर्षगांठ होती। बस, आखरी पैग, उसी न होने वाले ब्याह के लिये।
इस बार कांपते हाथो से पेग, पुष्पा ने ही बनाया। मैंने पेग उठाकर इसके होठों से लगा दिया। पेग खत्म कर वह बिस्तर पर गिर गई। मैंने उसे सम्हालकर लिटा दिया। बेहोशी में भी उसकी आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे और होठों से, अस्पष्ट से स्वर फूट रहे थे।
मैंने उस खूबसूरत, सम्पन्न, मशहूर लेकिन बेहद अकेली, यतीम औरत की ओर देखा। जाने-अनजाने, मुझे वह, अपनी शख्सियत का ही एक टूटा हिस्सा महसूस हुई। मैंने हथेली से उसके आंसुओं को पोछा और स्नेह से उसका माथा थपथपाकर बाहर आ गया। (विनायक फीचर्स)

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