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आँगन में खिली छह खुशियों की बारात — प्रियंका सौरभ

 

माटी की सोंधी गंध में भीगा,

धूप से तपता प्यारा आँगन,

जहाँ राजेश ने बोया सपना,

जहाँ फूटी थी उम्मीदों का चन्दन।

 

हल की मूठ पकड़े जब थके हाथ,

फिर भी बोते रहे मुस्कानें,

छोटे-छोटे सपनों को सींचा,

आसमान छूती रही अरमानें।

 

वो दिन भी आया चुपके से,

जब छह-छह घरों की थी तैयारी,

ना शहनाईयों का शोर था वहाँ,

ना था कोई बनावटी न्यारी।

 

एक आँगन, एक मंडप, एक आशीष,

छः वर-वधुओं का गूंजी बंधन,

छः बारातें, छः डोलियाँ उठीं,

छः सपनों ने थामा जीवन।

 

माँ के आँचल में भीगे आँसू,

पिता के माथे पर संतोष की रेखा,

रिश्तों की मीठी परछाइयों में,

गूँजती रही मंगल की लेखा।

 

गाँव के हर कोने से आए लोग,

ले आए संग अपनापन, दुआएँ,

किसी ने नहीं तौला सोने में,

सिर्फ दिलों से दीं सबने बधाइयाँ।

 

ना दिखावा, ना बोझ, ना कर्ज,

बस प्रेम का उत्सव, सरलता का गीत,

राजेश ने रचा वो अद्भुत क्षण,

जहाँ रिश्तों ने पहना हरियाली का मीत।

 

छः सपनों की उस विदाई में,

छुपा था एक पूरा जहान,

जहाँ मिट्टी से उठती सुगंध में,

झलकता था सच्चा अभिमान।

 

आज भी हवाओं में तैरती है,

उस आँगन की मधुर कहानी,

जहाँ किसान बना था समाज का दीप,

जहाँ सादगी ने रची थी रवानी।

 

छः खुशियों के उस पर्व की सौगंध,

हर गाँव में, हर घर में बहे,

रिश्तों की मिठास बनी रहे यूँ ही,

माटी से मन के दीप जले।

प्रियंका सौरभ, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा – 127045

 

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