तालाब, नदी और सागर – डॉ जयप्रकाश तिवारी

हम टहला करते हैं
प्रायः प्रातः या शाम
मन जब उद्विग्न होता
मिलता चैन, आराम
तालाब के किनारे
नदी के किसी घाट पर
या सागर के तट पर।
तालाब का किनारा
“संस्कृति” की देन है
नदी का सुन्दर घाट है
अपनी संस्कृति और
प्यारी प्रकृति की साझी
तथा सागर तट है
विशुद्ध प्राकृतिक।
तालाब किनारे बैठते हैं
नदी किनारे टहलते है
सागर तट पर लेटते हैं
उसकी लहरों को देखते
उसके फेनों संग खेलते
अपने रंगीन सपने बुनते
रेत पर उसे बनाते मिटाते।
लेकिन यह तालाब..?
जो शांत है, नि:चेष्ट है
दिखता शान्त सा है
जिसमे कोई वर्तुल नहीं
हम कंकड़ी फेंकते हैं
वर्तुल सृजित करते हैं,
मन की मौज के लिए।
नदी देती है एक साथ
दोनों का ही आनन्द
मजा तालाब का भी,
विशाल सागर का भी
सपने देखने,उसे बुनने
बनाने, मिटाने का भी।
सागर नित बदलता
रहता है अपना रंग
लालिमा, नीलिमा से
धुधले, कालिमा तक
मचाता रहता है शोर,
करता रहता एक गर्जन
सुनो! सुनो! और सुनो!
केवल मेरी बात सुनो !!
लेकिन …
तालाब और नदी को
हम सुनाते है अपनी बात
अपनी सभी समस्याएं
हंसकर भी, गाकर भी,
रोकर भी, उलाहना और
कटु उपलंभ देकर भी।
यह तालाब निज घर है
यह नदी अपना परिवार है
सागर है – “संविधान सभा”
जहां सब चिल्लाते स्वार्थ में,
सुनता किसी की कोई नहीं
देख भी लो! कौन? कितने?
किसके प्रतिनिधि खड़े हैं?
यहां राष्ट्रहित और परमार्थ में?
– डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश