स्यात् प्रासांगिक – अनुराधा पांडेय

दृष्टि ही कुछ लोग की गहरी न थी ।
भूमिकाएं कथ्य के अनुरूप थी।
ला दिया हमनें हवा को कटघरे में,
वृक्ष से पत्ते गिरे जब सूखकर।
नीर तरु को सींचता ही रह गया,
और कलियां चीखती थी रूठकर ।
मापनी का था दुराग्रह, क्या करें..
दोष मापा ,जब क्रिया समरूप थी।
भूमिकाएं कथ्य के अनुरूप थी।
धार अविरल बह रही थी पावनी,
किन्तु मरुथल नैन में थी रेत ही।
स्वार्थ के विचलित पहरुए,थे सजग,
हर तरफ उनको दिखे थे प्रेत ही ।
वृक्ष वट पर वास करती तितलियां…
आह भरती कह रही उफ!,”धूप थी”
भूमिकाएं कथ्य के अनुरूप थी।
शूल कदली अनवरत रोते मिले,
कौमुदी को देखकर उल्लास मय।
मछलियां अब छद्म से मिलती नहीं,
फट रहे थे गिद्ध बगुलों के हृदय।
छेद छलनी के गिने जब थे यहाँ …
सुन रही जो गालियां वो सूप थी।
भूमिकाएं कथ्य के अनुरूप थी ।
दृष्टि ही कुछ लोग की गहरी न थी।
भूमिकाएं कथ्य के अनुरूप थी ।
– अनुराधा पांडेय, द्वारिका, दिल्ली