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उजाड़ कर बसे – प्रियंका सौरभ

 

कभी थे ये हरियाली के गीत,

जहाँ पंछियों की थी मधुर प्रीत।

पेड़ों की छाँव में बजता था जीवन,

अब वहाँ गूंजता है मशीनों का क्रंदन।

 

जहाँ हिरण नाचते थे खुले आँगन में,

वहाँ अब बिछी है सड़कें बंजर मन में।

किसे पड़ी थी इन साँसों की राह,

जब विकास का नारा बना तबाही की चाह।

 

कटते रहे बरगद, पीपल, साल,

गिरे शालवन जैसे टूटी कोई दीवार।

आदिवासी रोये, पशु हुए बेघर,

पर शहर को चाहिए था नया एक घर।

 

किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे,

अगर जड़ें ही न बचीं तो फले कौन हँसे?

जिस मिट्टी ने जीवन को पाला,

उसी को उजाड़ा, है ये तमाशा काला।

 

विकास की दौड़ में हमने खोया क्या-क्या,

शायद ये सवाल अब पूछेगा सवेरा।

कंक्रीट के जंगलों में क्या बचेगी हवा,

जब पेड़ों की जगह केवल छाया धुआँ?

 

चलो थम जाएँ, थोड़ा सोच लें,

हर काटे पेड़ के आगे झुक के रो लें।

क्योंकि जो उजाड़ कर बसते हैं राजमहल,

वहीं इतिहास में कहलाते हैं अकल का विहल।

 

किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे,

वो नींव ही हिलती है, जहाँ करुणा मरे।

(हैदराबाद के जंगलों की व्यथा)

-प्रियंका सौरभ, उब्बा भवन, आर्यनगर,

हिसार (हरियाणा)-127045 (मो.) 7015375570

 

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